तन के हारे, मन के हार यहां-वहां सा,भटक रहा है।
अपनी ख्वाहिशों के पंख खुजाते, आंख मिचौली करती-सी किस्मत।
मां-सी धरती, बहता-सा पानी, मेहनत भरा पसीना,
आंखें चमक जाती हैं, जब आता सावन का महीना।
क्यूं कर नहीं होती उसपे देवी देवताओं की मैहर,
क्यूं बरपा करता है उसपे ही ये कुदरत का कहर।
पहचान थी गरीबी जो माथे की सलवटें बन गयी,
उसकी मासूम नजरें आज समाचारों का हर्फ बन गयी।
आजकल खेल रही, खेतीहर संग राजनीति भी चौसर,
आत्महत्याओं पर उसके लग रही है नेताओं की मोहर।