जिस सिंदूरी रिश्ते को वो मनुहार से जीती आई थी,
वही निर्जीव नसीब में लिख गया जमाने की रूसवाईयां ।
कानून बनाकर मौलिक अधिकारों पे संविधान लागू हो गए
वैधव्य का वास्ता देकर, समाजी रंगो की वसीयत लूट ले गए ।
उसकी जागीर से छीन ली गई मुस्कराहट उसके होठों की।
स्पंदित आखें नमक उतर आया, गंगाजल से उसे शुद्ध कराया,
बिछोह का दंश रोज छलेगा, तपस्या ही अब जीवन होगा,
तन पे सफेद साड़ी, सूनी कलाई और खामोश मातम होगा।