कविता : वो माता कहलाती है

प्रीति सोनी 
कभी रूप दुर्गा का कभी काली मां का रूप 
कभी करूणामयी जो हमको सहलाती है 
ममतामयी है वो जो पालती है विश्व को 
जो मूरत है स्वर्णा की माता कहलाती है 

जनम देती है हमें जगत में लाती है वो 
उसकी तो सारे जगत में एक ख्याति है 
उसके बिना नहीं दुनिया में सार्थक 
वही पिता, भगिनी और भ्राता कहलाती है 
 
सूरज की पहली किरण सी वो जागती है 
दिन की सुबह से वो रौशनी जगाती है 
हमारी खुशी में ही वो खुशहाल रहती है 
हमें कोई दुख हो तो सो भी नहीं पाती है 
 
उसमें भरा ज्ञान का भंडार है अपार कहीं 
जीवन में सदा थोड़ा-थोड़ा देती जाती है 
कहीं नहीं है हृदय में छल कपट का भाव 
वो तो सदा ममता व प्रेम में ही भाती है
 
कभी सखी होती मेरी कभी भगिनी है बड़ी 
कभी होती माई और कभी सहपाठी है 
विद्या देती शारदा है, मर्यादा सिखाती है वो 
प्रेम ही की भाषा से वो दुनिया जिताती है 

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