लफ्जों से काढ़ते थे कसीदे उर्दू के दुशाले पे,
उस रूहानी ज़ुबान को उम्रभर का ज़ख्म दे गए,
कि कहते-कहते ही क्यों खामोश हो गए,
कहो निदा ऐसे क्यों विदा हो गए ?
जन्नत में खुद को गर सुनानी ही थी नज़्में,
साथ लेते हमें भी, खुद क्यों फ़ना हो गए,
तमाम उम्र सुलगाते रहे इल्म के उजाले,
जब अंधेरा गहरा हुआ तो खुद चिराग हो गए,