कविता : प्रकृति मुस्कुराएगी

भौर का उजियारा हुआ
देखो सुंदर धरा मुस्काई
पंछी चहचहाकर निकले
हरितिमा चहुंओर छाई
 
वो देखो कल-कल करती नदी
गीत गाती, बहती आई
दूर कहीं पर्वतों पर
सिंदूरी घटा-सी छाई
वियोग की ऋतु में भी
मिलन की आस पाई
दूर-दूर फैले खेतों ने
कृषकों की मुस्कान बढ़ाई
 
वृक्षों की ओट में छुपकर
मां ने मीठी फटकार लगाई
 
अनुपम सौंदर्य से लिप्त धरा
प्रेम राग सुना रही 
उफ्फ ! मेरे नैनों से
निंदिया अब तू क्यों जा रही ?
यूं उम्मीदों से भरा
क्यों मेरा स्वप्न ले जा रही ?
 
देख झंझावातों से परे पुनः
भौर सुहानी आएगी
ये स्वप्न नहीं हकीकत है
प्रकृति में फिर रवानी आएगी
 
लगाएंगें असंख्य वृक्ष हम
और प्रकृति मुस्कुराएगी
और प्रकृति मुस्कुराएगी।

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