कविता : अपने-अपने खुदा

गुलमोहर की छांव तले नींद के आगोश में था
तभी 'जयऽऽऽ शनि महराज' के उद्घोष से नींद टूटी
देखा तो एक व्यक्ति तेल के अधभरे पात्र में
लौह प्रतिमा रखे खड़ा है।
तेल में कुछ सिक्के डूबे हुए थे
उसका मंतव्य समझ
उसे एक सिक्का देकर विदा करता हूं।
पुनः आंखे बंद करता हूं,
तभी 'याऽऽऽऽ मौला करम' की आवाज चौंकाती है
देखता हूं एक फकीर मुट्ठी भर अंगारों पर 
लोबान डाल मेरी बरकत की दुआएं मांग रहा है,
उसे भी एक सिक्का देकर रुख़सत करता हूं।
फिर से आखें बंद करता हूं
पर नींद तो किसी रूठी प्रेमिका 
के मानिंद आने से रही;
सो घर की ओर चल पड़ता हूं।
'सिटी-बस' में बरबस ही नज़र
नानक देव की तस्वीर पर जा टिकती है।
मन विचारों से अठखेलियां करने लगता है।
सोचता हूं संसार में खुदा के कितने रूप हैं,
किसी के लिए उसका काम खुदा है;
किसी के लिए उसका ईमान,
किसी के लिए राम खुदा है;
किसी के लिए रहमान,
कहीं घुंघरू की झंकार खुदा है;
किसी के लिए तलवार, 
किसी के लिए पैसा खुदा है;
किसी के लिए प्यार,
इसी ऊहापोह में बस-स्टाप आ जाता है
उतरते वक्त निगाहें कंडक्टर के गले में
लटके 'क्रास' पर अटक जातीं हैं।
सोच रहा हूं कि खुदा तो एक ही है
और वह हम सबके अंदर है,
फिर लोगों ने क्यूं गढ़ रखे हैं
अपने-अपने खुदा...!
 
कवि-पं. हेमन्त रिछारिया

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