कविता : शील बचाने उठ अब नारी

चल उठ स्त्री बांध कफन अब
कोई रक्षक नहीं आएगा
हत्या-शोषण-बलात्कार से अब
कोई तुझे नहीं बचाएगा।
 
ये कलयुग है निर्ममता यहां
स्नेह की आस किससे लगाओगी?
स्तन पर नजरें टिकाए बैठे
दु:शासन से ना बच पाओगी।
 
कैसी आस लगा रखी है तुमने
जिस्म के ठेकेदारों से?
खुद की रक्षा खुद के सिर है
शस्त्र कब तक ना उठाओगी?
 
सदियों से उपभोग की वस्तु
स्वयं को कितना सताओगी?
शील बचाने खड़क उठा लो 
कब तक बेचारी कहलाओगी?
 
वस्त्र कोई खींचेगा तुम्हारा
तुम पर मर्दानगी दिखाएगा
ऐसे बलात्कारियों को तुम
कब नामर्द-नपुंसक बनाओगी?
 
छोड़ संताप उठ जा अब भोग्या 
कोई नहीं बचाने अब आएगा
'नूतन' आगाज के साथ करो सामना
मौन ईश्वर भी सर झुकाएगा।

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