कविता : कृतज्ञता

मेरे प्रभु
रहा संग तू
न मैं ये भूलूं, मेरे प्रभु
 
असमर्थता की निर्जीवता में
तू विश्वास के प्राण भरता रहा
निराशा के अंधेरों में अक्सर
टिमटिमाता, उजाला करता रहा
मगर जब रुक ही गए कदम
ली तलवार तूने लड़ा जंग तू
न मैं ये भूलूं, मेरे प्रभु
 
उतारा जिस भी समंदर में तूने
तैराकी के अंदाज़ सिखाता रहा
अड़चनों से लड़ना, बच कर निकलना
तू राहें नईं दिखाता रहा
उस समय जब डूब ही जाती देह
अचंभा, कि आया, तिनका बन तू
न मैं ये भूलूं, मेरे प्रभु
 
खेल खिलाए अनोखे अनोखे
हराता, सिखाता, जिताता रहा
परिश्रम तेरा और मेरा पताका
करे कभी भी न मोह भंग तू
न मैं ये भूलूं, मेरे प्रभु
 
मेरे प्रभु
रहा संग तू
न मैं ये भूलूं, मेरे प्रभु

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