सूर्य किरण शर्माती लाल हो रही है
धरा कली से जैसे गुलाब हो रही है
ये प्रभात का चांद कुछ ऐसा भा रहा है
रोशनी से अपनी वह जग को लुभा रहा है
सूर्य चांद का प्रभात में, कुछ अनोखा ये संगम
क्यों दुनिया न बूझे, देख रूप ये बिहंगम।
वृक्ष झूम उठे, समीर लोरी सुना रहा है
बैठा दूर जंगलों में, सन्नाटा भी गा रहा है
जगतपति का अल्हाद, अस्तित्व लुटा रहा है
पात्र होगा वही उसका, अलख प्रेम की जो जगा रहा है
सोये हुओं को सतगुरु, नाद अनाहत जगा रहा है