जन्माष्टमी पर कविता: हे धरणीधर हे कृष्ण न तरसाओ
आ जाओ कृष्ण...
देखो अब बोल भी छूट चले
शब्दों को भी खोती हूं
एक-एक प्रेम पुष्प को
भाव माल में पिरोती हूं
बैठ कुंज श्याम तुलसी के
बाट तुम्हारी तकती हूं....
कान्हा सोचती हूं
कितनी सुंदर रही होगी
न चितवन तुम्हारी
जो देख लो मेरी ओर
तो स्वयं से मिल जाऊंगी
थोड़ा और संवर दृष्टि से तुम्हारी
पुनः तुमसे मिल
एक स्वप्न सदी का तुम तक
सहज ही ला पाऊंगी
इस काल से उस युग की
कठिन डगर चलती हूं
आ जाओ कृष्ण बाट तुम्हारी तकती हूं....
सोचती हूं क्या ही मधुर स्मित रही
तुम्हारी जो सोच तुम्हें विष भी अमृत होता
कुछ तो अनूठा तुममें होगा
हो कोई खंड काल का बस तुम तक ही रुकता
अब बीतती एक एक श्वास में
माला सा तुमको ही जपती हूं
तुम हुए तो स्वप्न रहे
रचे प्रेम के सर्ग
तुम ही सगुण सतेज सूर्य
हुए तुम ही ओज प्रखर
आ जाओ माधव जग को तारो
मैं गीत मधुर रच रखती हूं
युग प्रवर्तन आओगे मैं धीर यही धरती हूं
हे धरणीधर न तरसाओ
आ जाओ मैं बाट तुम्हारी तकती हूं...
जब भी मेह बरसता है
सरिता की उत्ताल तरंगों में
बसते कृष्ण को हृदय भर के
आंखों से पीती हूं
तुम हो वही मेघ जो कल आए थे
सोच सुख से घिरती हूं
आओ सत्य रस बरसाओ
मैं प्यासी धरती राह तुम्हारी तकती हूं
मेरे लिए तो हो तुम ही चंद्र किरण
और उसके चंद्र का प्रारूप भी तुम
आ जाओ कृष्ण अब फूंक प्राण इस
शापित बंसी के स्वर पुनः तरंगित
कर जाओ मैं बन बट बांसुरी की
गूंजूंगी स्वर तुम्हारे ही
अब विरह ज्वाल और न धधकाओ
आ जाओ कृष्ण मैं बाट तुम्हारी तकती हूं...
तुम शांत ध्येय से मैं चपल नद शीर्ष निर्झरी
तुम वृक्ष प्रतीक शाश्वत प्रेम के
मैं मौर तुम्हारी वल्लरी
तुम भोर मेरे अरण्य हृदय के
मैं आरात्रिका देव द्वार कि
प्रीत पीत की दीर्घ द्युति से
क्षीण स्वप्न मार्ग बुहारती हूं
तुम प्रथम प्रेम मेरे हो तुम्हीं
अंतिम सोपान
तुम ही से उपजा सुर मुझमें
तुम्ही से उपजा गान
तुम हो गहन गंभीर समय से
मैं समय सरित की तान
क्या हि बोलूं क्या ही लिख दूं
हो तुम अमर इष्ट संधान
प्रबल भाव यात्रा में हो तुम मेरे मान
रच रच अमिय क्षणों में अब
स्मृतियों सी ढलती हूं
आ जाओ कृष्ण अब एकाकी श्वासों
के आरोह अवरोह से मैं थकती हूं
है अनुरोध अनुराग का अब प्रेम गीत रचती हूं
आ जाओ कृष्ण
हे धरणीधर मैं बाट तुम्हारी तकती हूं
मैं बाट तुम्हारी तकती हूं....
आप सभी को जन्माष्टमी की अशेष शुभकामनाएं...
श्रीकृष्णार्पणमस्तु