स्वप्न जो देखा था रात्रि में हमने
सुबह अश्रु बन बह किनारे हो गए हैं
चांद और मंगल पर विचरने वाले हम
आज कितने बेसहारे हो गए हैं
विकास की तालश में हमने हमेशा
जंगलों, पहाड़ों, पठारों को गिराया
मंगल और चंद्रमा पर बसने के प्रयास में
धरती को मिट्टी मानुष का उपहास उड़ाया
स्वार्थ, लालच और अभिमान के मार से गर्वित हो