कविता : महाराष्ट्र का महा-सर्कस

ये (नेता) क्या कभी बाज आएंगे 
अपनी शाश्वत घिनौनी फितरत से।  
रोएगा मतदाता ही जिसने चुना इनको,
अच्छे शासन की हसरत से || 1 || 
 
जो लड़ेंगे सरकार बनाने में,
क्या (ख़ाक) सरकार चलाएंगे।  
मनमानी रेवड़ियां बाटेंगे,
हर पद की जुगाड़ लगाएंगे || 2 || 
 
हां, हमने ही तो चुना इनको,
अब सिर धुनकर क्यों पछताएं हम। 
बेबस से उन्हें कोसते हुए,
क्यों अपना खून जलाएं हम || 3 || 
 
ये बेहया, सत्ता लोभी अपनी 
हरकतों से बाज न आने वाले। 
ठगे जाते हैं सदा, ठगे जाते रहेंगे,
हम मतदाता ही भोले-भाले || 4 || 
 
झूठा हो गया प्रजातंत्र,
झूठी सब कवायदें चुनाव की। 
जिसकी पतवारें टूटी हों,
कैसे रक्षा होगी उस नाव की ||5 ||
 
अवसरवादी गठबंधन की राजनीति 
है प्रजातंत्र की दुखती नस। 
इसका जीवंत नमूना है 
यह महाराष्ट्र का महा-सर्कस || 6 ||

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