प्रेम कविता : कागा नित दरवाजे पर मेरे...

कागा नित दरवाजे पर मेरे, 
कांव-कांव जब करता है।


 

आते होंगे प्रीतम मेरे, 
मन उमंगें भरता है।।
 
सज-धज मैं राह निहारूं, 
हो जाती है शाम। 
काम-काज में मन नहीं लगता, 
न झांव, न घाम।।
 
बीते पल को सोच-सोचकर, 
सूरज यूं ढलता है। 
 
फोन की घंटी जब बजती है, 
दौड़ लगा के जाती हूं। 
आवाज सुनाती और किसी की, 
रोती-रोती आती हूं।।
 
आशा का दीपक मन में मेरे,
रात-दिन यूं जलता है।
 
सासु, जेठानी, ननद, देवरानी, 
सब कोई मारे ताना।
ससुर हमारे गुस्से में कहते, 
जल्द बनाओ खाना।।
 
विरह में उनके पागल हो गई,
दिल मिलने को करता है। 

 

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