कबीर की रचना : मन की महिमा

कबीर मन तो एक है, भावै तहां लगाव।
भावै गुरु की भक्ति करूं, भावै विषय कमाव।।
 
मन के मते न चलिए, मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक।।
 
मन के मारे बन गए, बन तजि बस्ती माहिं।
कहैं कबीर क्या कीजिए, यह मन ठहरै नाहिं।।
 
मनुवा को पंछी भया, उड़ि के चला अकास।
ऊपर ही ते गिरि पड़ा, मन माया के पास।।
 
मन पंछी तब लग उड़ै, विषय वासना माहिं।
ज्ञान बाज के झपट में, तब लगि आवै नाहिं।।
 
मनवा तो फूला फिरै, कहै जो करूं धरम।
कोटि करम सिर पै चढ़े, चेति न देखे मरम।।

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