जब नहीं होता देश सड़कों पर
वह कहीं भी नहीं होता
अपने ही घरों में भी नहीं!
फ़र्क़ है झरोखों, खिड़कियों
पाटना सीढ़ियां, आना ज़मीन पर
खोलना बंद दरवाज़ा घर का
रखना पैर बाहर नंगी ज़मीन पर
करना सामना उन चेहरों का
नहीं आतीं नज़र जिनकी
तनी मुट्ठियां, चिपके हुए पेट,
बुझी आत्माएं खिड़कियों से!
सड़क से ही पड़ता है दिखाई
है बाक़ी अभी अंधेरा कितने घरों में
खिड़कियों से नहीं चलता पता
फहराती रहती हैं कांपते हुए हाथ
नायकों की तलाश में-
खलनायकों, तानाशाहों की ओर
बरसाती है पुष्प और मालाएं