अनुवाद मुझे रचनात्मक संतोष देता है

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भाषा की चरम कलात्मकता मुझे छूती है और यही कारण है कि खोखें हुई बोर्खेज से लेकर गैब्रियल गार्सिया मार्खेज, आइजक बाशेविस सिंगर से लेकर इतालो काल्विनो मुझे पढ़ने का आनंद और अनुवाद का रचनात्मक संतोष देते हैं। यह कहना है ख्यात अनुवादक इंदुप्रकाश कानूनगो का। भोपाल में बस चुके श्री कानूनगो एक निजी यात्रा पर इंदौर आए थे।

अब तक उनकी अनूदित दर्जनभर किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें वाल्टर बेंजामिन के निबंधों की किताब उपरांत, बोर्खेज की कहानियों का संग्रह चाकू आईने और भुलभुलैया, एडगर एलन पो की कहानियाँ कुर्सी पर बैठकर चौंक पड़े हम, बाल्जाक की कहानियाँ लाल सराय, मार्खेज की कहानियों के दो संग्रह बर्फ पर जमी खून की लकीर तथा बीते वक्त का समुद्र, सिंगर की कहानियाँ मृत्यु-सा बलवान होता है प्रेम, जेम्स जॉयस की कहानियाँ डबलिन का दिनमान प्रकाशित हो चुके हैं।

इसके अलावा इन्हीं मशहूर लेखकों की कहानियों के संग्रह दुःख का संगीत और सात समुंदर की शहनाई भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें मोपासां और चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा की कहानियाँ भी शामिल हैं। श्री कानूनगो कहते हैं आलोचना कृति के सामने होती है जबकि अनुवाद उसके समानांतर। यानी मूल रचना के साथ अनुवाद का संबंध दोस्ताना होता है।
  भाषा की चरम कलात्मकता मुझे छूती है और यही कारण है कि खोखें हुई बोर्खेज से लेकर गैब्रियल गार्सिया मार्खेज, आइजक बाशेविस सिंगर से लेकर इतालो काल्विनो मुझे पढ़ने का आनंद और अनुवाद का रचनात्मक संतोष देते हैं। यह कहना है अनुवादक इंदुप्रकाश कानूनगो का।      


अनुवाद के लिए दो चीजें महत्वपूर्ण होती हैं। पहली विश्वसनीयता, दूसरी अनूदित भाषा स्वंतंत्रता भी ले। ये दोनों चीजें एक-दूसरे की विरोधी भी हैं लेकिन अच्छे अनुवाद की परख यही है कि वह दोनों के बीच कैसे संतुलन साधता है।

सिंगर का हवाला देते हुए वे कहते हैं अनुवाद सबसे बड़ी समस्या भी है और चुनौती भी और अनुवाद का काम व्याख्या करना नहीं है। इसलिए कई बार जटिल मूल कृति का अनुवाद भी जटिल होगा। मूल कृति एक रचनात्मक और स्वतः स्फूर्त गतिविधि है जबकि अनुवाद चिंतनात्मक है। इसलिए मूल कृति में भाषा की चरम कलात्मकता को अनुवाद में बरकरार रखना किसी भी अनुवादक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कौशल है।

वे कहते हैं मार्खेज में पैशन है और उन्होंने इस पैशन को जिस कलात्मकता से बुना है वह मैजिकल रियलिज्म के नाम से जाना-पहचाना गया। भाषा की यह कलात्मकता मुझे हिंदी में फशीश्वरनाथ रेणु और विनोदकुमार शुक्ल में दिखाई देती है। और यह इनमें बनावटी तौर पर नहीं बल्कि सहज ढंग से अभिव्यक्त हुई है। यही कारण है कि इनकी कलात्मकता भी मुझे छूती है।

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