स्मृतियों का कोलाज है मेरा उपन्यास

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कहते हैं हरेक की जिंदगी में एक उपन्यास होता है। इंदौर के रमेश शिवप्रसाद की जिंदगी में भी एक उपन्यास था, इसे उन्होंने रच दिया। नाम दिया- नॉट लोनली इन लंदन। शीर्षक से ही जाहिर है कि यह लंदन में भी अपने अकेले नहीं होने के बारे में है। हाल ही में इंदौर में एक सादे समारोह में इसका लोकार्पण हुआ।

यह मुलाकात उनके घर पर हुई। बात हुई तो उन्होंने बहुत सारी बातें बताईं। उनसे कुछ सवाल पूछे। उन्होंने स्मृति की पगडंडी पर चलते हुए सधे हुए जवाब दिए। यहाँ सवाल मिटा दिए गए हैं, ताकि जवाबों से एक सिलसिला बने। यूँ वे अपना नाम रमेश दुबे लिखते हैं, लेकिन कहानियाँ और अब यह उपन्यास उन्होंने रमेश शिवप्रसाद के नाम से लिखा है। उनकी कुछ कहानियाँ अक्षर पर्व और अक्षरा जैसी लघु पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। अपने पहले अँगरेजी उपन्यास आने से उनमें रचनात्मक संतोष है। वे प्रसन्न हैं।

  यहाँ सवाल मिटा दिए गए हैं, ताकि जवाबों से एक सिलसिला बने। यूँ वे अपना नाम रमेश दुबे लिखते हैं, लेकिन कहानियाँ और अब यह उपन्यास उन्होंने रमेश शिवप्रसाद के नाम से लिखा है।      
प्रसन्नता से उन्होंने बताया कि मैं लंदन में रहा और उस वक्त मेरी उम्र रही होगी कोई 30-32 वर्ष। मेरे मन में अँगरेजों के प्रति खासा गुस्सा था, उनके प्रति कुछ खास धारणाएँ बन चुकी थीं, लेकिन इन तीन सालों के दौरान मैं कुछ ऐसे अँगरेजों के संपर्क में आया कि मेरा उनके प्रति वह गुस्सा भी काफूर हो गया और मेरी तमाम धारणाएँ भी ध्वस्त हो गईं। मेरा यह उपन्यास अपने इन्हीं अनुभवों पर आधारित है। मैंने वहाँ देखा कि कैसे एक अँगरेज ने निस्वार्थ भाव से एक अनाथ भारतीय बच्चे का लालन-पालन किया। मैंने यह भी जाना कि कैसे नस्ल, भेदभाव, जाति, लिंग और उम्र से ऊपर उठकर अँगरेज और भारतीय मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि ही नहीं मानते, बल्कि इसके लिए अपना निश्चल प्रेम भी दिखाते हैं और त्याग भी करते हैं।

लंदन से लौटने के बाद करीब 30-35 सालों तक वहाँ बिताए जिंदगी के अनमोल और खूबसूरत पलों की स्मृतियाँ लगातार मेरा पीछा करती रहीं। वहाँ के लोग, वहाँ का पल-पल बदलता मौसम, वहाँ बनते-बिगड़ते रिश्ते और धड़कती संवेदना मुझे लगातार याद आती रहीं। फिर एक दिन इनका आंतरिक दबाव इतना बढ़ा कि मैं लिखने बैठ गया और यह सब अपने आप हुआ कि मैंने उन स्मृतियों को सीधे-सादे ढंग से अँगरेजी में उतारना शुरू कर दिया।

वे स्मृतियाँ खुद-ब-खुद, एक के बाद एक साकार होने लगीं। भिन्न भाषा, भिन्न रहन-सहन, भिन्न संस्कृतियाँ प्रगाढ़ रिश्तों को बनने में कतई दीवार न बन सकीं। मैंने अपने इस उपन्यास में बार-बार फ्लैश बैक तकनीक का इस्तेमाल किया है और इसमें प्रेम, रोमांस, सुख-दुःख और अच्छे पात्रों की एक सादगीपूर्ण आवाजाही है।

इसमें आज का हाँफता-दौड़ता लंदन नहीं, बल्कि अपनी शांत लय में धड़कता लंदन है। मैंने इस शहर की वह तस्वीर भी खींचने की कोशिश की है, जो हर कल्चर का सुंदर एलबम भी है। आप चाहें तो इसे मेरी स्मृतियों का एक रंगीन, लेकिन लयात्मक कोलाज कह सकते हैं।

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