भाषा वही चलेगी जो सबको ठीक लगेगी : साहित्यकार नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

साहित्य मनीषी नर्मदा प्रसाद उपाध्याय कला, संस्कृति और इतिहास के विद्वान हैंं।  
हाल ही में महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं। 
 वरिष्ठ पत्रकार और लेखक शकील अख़्तर ने उनसे बातचीत की। 

भाषा की शुचिता के साथ भी कोई समझौता नहीं होना चाहिए 
भाषा के वितंडावाद से बचने की आवश्यकता है
 महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार हिन्दी की सेवा की सम्मान है
‘हमारी जो हिंदुस्तानी भाषा है, यही सही में वह हिंदी है जो सभी को समझ में आती है'। महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के विद्वान लेखक नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने यह बात कही। श्री उपाध्याय संस्कृत निष्ठ हिन्दी और समझ में आने वाले शब्दों से बनी हिन्दी या हिंदुस्तानी के सवाल पर अपना जवाब दे रहे थे। 
 
बता दें कि नर्मदा प्रसाद उपाध्याय हिन्दी का ऐसा नाम हैं जिन्हें साहित्य,कला और संस्कृति के विभिन्न अनुशासनों में अध्ययन और सर्जनात्मक योगदान के लिये जाना जाता है। उन्हें विगत वर्षों में हिन्दी के कामों के लिये देश- विदेश की फेलोशिप,अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले हैं। पुरस्कार की घोषणा के बाद उनसे वरिष्ठ पत्रकार और लेखक शकील अख़्तर ने बातचीत की। 
बहुत जल्दी भूल जाते हैं इतिहास : नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कहा, हम लोग अपने इतिहास को बहुत जल्दी भूल जाते हैं। अगर हम पुरानी बातों की समझ से आगे बढ़ें तो शायद यह विवाद ही खड़ा न हो। उन्होंने कहा, सम्प्रेषण योग्य हिन्दी के विचार को पहचानकर पंडित कामता गुरु ने 1920 में हिन्दी व्याकरण लिखी थी। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि जो आम बोलचाल की भाषा है,उसे ही अपनाना चाहिए। वही भाषा आम लोगों की समझ की हिन्दी है। भाषा के मामले में विद्वता या संकीर्ण विचार दिखाने की जगह लोक मानस को देखना और समझना पड़ेगा। हमें यह जानना होगा कि  क्लिष्ट और अबोधगम्य भाषा के स्थान पर वह भाषा बोली जाए जो आसानी से समझ में आती है। असल में भाषा वही चलेगी जो लोगों को ठीक लगेगी और वे उसे ग्रहण करेंगे।
'अग्निरथ विश्रामगृह' वाला वह शब्दकोष : हम सभी जानते हैं कि डॉक्टर रघुवीर ने एक डिक्शनरी बनाई थी। उस शब्दकोष में अग्निरथ विश्रामगृह जैसे शब्द रखे गये थे। परंतु उन शब्दों को कभी स्वीकार्यता नहीं मिली। आज भी रेल,इंजन और स्टेशन जैसे शब्द लोकप्रिय हैं। लोक भाषा में ग्रामीण स्टेशन को टेशन ही कह देते हैं। टेशन का मूल अंग्रेज़ी शब्द तो स्टेशन है। लोगों ने अग्निरथ विश्रामगृह जैसे वाले शब्दों को कभी अपनी बोलचाल में नहीं अपनाया। वह व्यवहारिक भी नहीं था। हम जो सहज रूप से लिखते और बोलते हैं या अपनाते हैं वही हमारी हिंदी है। दिग्गज साहित्यकार भवानी प्रसाद मिश्र की कविता है।
 
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख
कहां बसी है हिन्दी की आत्मा? : आप जो बोलते हो वह लिखते हो दिखते हो वैसा होना चाहिए हिंदी की आत्मा वही है। रसखान क्यों ज़ुबान पर हैं, उसका कारण यही है कि उन्होंने आम भाषा में लिखा है और उसको लोगों ने ग्रहण कर लिया। आप उसे भाषा मानो जो लोग ग्रहण करते हैं। कोई व्यक्ति विशिष्ट और बनावटी रूप से जो बोले वह आम भाषा नहीं है। यह भी जानना ज़रूरी है कि यह जो हम हिंदी बोल रहे हैं, इसकी शुरूआत प्रख्यात कवि और भारत के गौरव का आख्यान करने वाले हज़रत अमीर खुसरो ने 12 वीं, 13वीं शताब्दी में ही कर दी थी। तब ही इसके हिन्दुस्तानी स्वरूप की शुरूआत हो गई थी। यह संप्रेषणीय है। कुछ लोग भले इसे क्लिष्ट बनाएं। भाषा का विवाद, इसमें दूसरी भाषाओं के शब्दों का बखेड़ा खड़ा करें। इसका हमारी हिन्दी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। क्लिष्ट हिन्दी की जगह लोग अंग्रेज़ी भाषा को अपना लेते हैं। हम इस तरह अपना ही नुकसान करते हैं। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि भाषा की शुचिता के साथ भी कोई समझौता नहीं होना चाहिए। भाषा की मूल प्रकृति और स्वभाव के साथ उसके उसकी मूल अस्मिता सुरक्षित रहनी चाहिए।  
हिन्दी जैसी वैज्ञानिक भाषा नहीं : हिन्दी इस अर्थ में विशिष्ट है कि यह जिस तरह बोली जाती है, उसी तरह लिखी जाती है। ऐसी वैज्ञानिक भाषा कोई दूसरी नहीं है। यह उदार भी है। इसमें संस्कृत,फारसी,अरबी,तुर्की,पुर्तगीज़,फ्रेंच के शब्द हैं। इसमें उर्दू शब्दों की जो बात होती है, वह भी हमारे ही देश की भाषा है। वह भी आपसी संप्रेषणीयता और समझ से भारतीय जीवन और व्यवहार में आई है। एक और बात वह यह कि समय के साथ हिन्दी अद्यतन भी होती रहती है। शब्दकोष में नये-नये शब्द जुड़ते रहते हैं। ग्लोबल दौर में कई नये शब्द हमारे हिन्दी शब्दकोष में बढ़ते ही जा रहे हैं। ऐसा होना भी ज़रूरी है। भले ही हिन्दी निदेशालय इसकी घोषणा नहीं करता। जबकि ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस के शब्दकोष में नये शामिल शब्दों को लेकर बकायदा घोषणा की जाती है। गर्व से पूरी दुनिया को बताया जाता है। इस तरह अंग्रेज़ी भाषा सबके करीब पहुंचती है। नई बनती जाती है। 
आधुनिक होती रहती है भाषा : हमारे यहां भाषा का काम लगातार चलता रहता है। भले घोषणा न होती हो। हमारी हिन्दी में अब पहले की तरह केवल 20-30 हज़ार शब्द नहीं अपितु इसके निरंतर अद्यतन होने के साथ इसमें समाहित शब्दों की संख्या डेढ़ लाख के पार चली गई है। भाषा में नये शब्द न जुड़ें, यह अद्यतन न हो तब इसकी प्रगति रूक जाएगी। हिंदी शब्दकोश में नए शब्दों को शामिल करने को लेकर हमारे यहां एक समिति इस पर विचार करती है। दूसरी भाषा का जब कोई शब्द प्रचलन में आता है तब उसपर विचार होता है। उसका विकल्प भी ढूंढा जाता है। 
किसी शब्द को अपनाने का क्या है नियम ? : मानव संसाधन मंत्रालय के दिशा निर्देशों के अनुसार, बहुत ज़्यादा प्रचलन में आए किसी अंतरराष्ट्रीय पारिभाषिक शब्द के मौजूदा अंग्रेजी रूप को हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में अपना लिया जाना चाहिये। उदाहरण के लिए हाइड्रोजन और कार्बन डाइआक्साइड को हिंदी में हम इन्हीं नामों से जानते हैं। कुछ इसी तरह रेडियो, रडार, इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन आदि के बारे में भी यही है। ऐसा नहीं है कि संस्कृत मूल के शब्द ढूंढने की कोशिश नहीं होती। परंतु बोलचाल में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल में आने वाले किसी भी भाषा के शब्द हिन्दी और इसके शब्दकोष में अपना लिये जाते हैं। जैसे अंग्रेजी, पुर्तगाली और फ्रेंच भाषा के शब्द टिकट, सिग्नल, पेंशन, ब्यूरो, रेस्टोरेंट, आम बोलचाल में आ चुके हैं। इन्हें हिन्दी में मान्यता मिल चुकी है।
भाषा के वितंडावाद से बचना ज़रूरी : हमें भाषा के वितंडावाद से बचने की आवश्यकता है। केवल 14 सितंबर तक इसे मनाकर संतोष नहीं कर लेना चाहिए। अन्यथा अंग्रेज़ी ही हमारी मुख्य भाषा बन जाएगी। ऐसा हो रहा है। नई पीढ़ी का झुकाव अंग्रेज़ी की तरफ है। आज शिक्षा और पेशेवर दुनिया में हिन्दी का प्रभाव कम होता जा रहा है। अगर हम क्लिष्टतापूर्ण हिन्दी के पक्षधर बनेंगे तब हम ना चाहते हुए भी हिन्दी का बड़ा नुकसान करेंगे। हमारे ही परिजन फिर हिन्दी की तरफ नहीं अंग्रेज़ी की तरफ़ मुड़ेंगे। इसलिए जो लोग कहते हैं, बोलना स्वीकार करते हैं। उसे अपनाना हिन्दी के हित में है। 
हिन्दी की सेवा का सम्मान : केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा द्वारा घोषित महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार पर अपनी प्रतिक्रिया में श्री उपाध्याय ने कहा, मेरे विचार में यह पुरस्कार मेरी हिन्दी की सेवा की सम्मान है। विगत 47 वर्षों से निरंतर हिन्दी के अनेक अनुशासनों में काम करता रहा हूं। विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां केवल अंग्रेजी में काम हुआ हो और जिसका स्त्रोत हिंदी हो परंतु जिसका कार्य हिंदी में ही न हुआ हो। कला के अनुशासनों को जोड़कर बात करना यह अपने आप में हिंदी के लिए नई बात है।

अन्यथा अक्सर हम विधा की बात करते हैं लेकिन अंतर विधाओं तथा को लेकर चर्चा या काम नहीं होता है। मेरा काम मिनिएचर पेंटिंग या भारतीय लघुचित्रों के अध्ययन और समीक्षा से भी जुड़ा है, मैं भारतीय काव्य के प्रसंगों पर आधारित मध्यकालीन लघुचित्रों की कलात्मक व साहित्यिक समीक्षा करता हूँ, यह कार्य हिन्दी में बहुत कम हो पाया है, मेरा प्रयास है कि अंतरानुशासिक दृष्टि से किया जाने वाला यह प्रयास हिंदी को निरंतर समृद्ध करे।

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