अवचेतन से आते हैं मेरे पात्र : मालती जोशी

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010 (16:13 IST)
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कोई घटना सुखद हो या दु:खद वह देख कर उपजी भावना ह्रदय के कोल्ड स्टोरेज में रखने में आ जाती है और वर्षों बाद कोई नया घटनाक्रम उस अतीत की याद बनकर कागज पर कहानी के रूप में उतर आता है। मुझे मेरे कथा-पात्र मध्यमवर्गीय जीवन से ही मिले हैं।

सादगी भरी ये बातें विख्यात कथाकार मालती जोशी ने खास मुलाकात में कही। महाराष्ट्रीयन संस्कारों में पली-बढ़ी लेकिन हिन्दी में सुयश पा चुकीं मालतीजी ऐसी विदूषी हैं जिनके व्यक्तित्व के पोर-पोर में सादगी गमकती है। इन्दौर मालती जोशी का मायका रहा है (विवाहपूर्व मालती दिघे) और नईदुनिया उनके लेखन की शुरूआत का पहला मंच, जब एक कवयित्री में रूप में वे पाठकों से मुखातिब हुईं।

उनकी तालीम होल्कर कॉलेज में हुई और शरद जोशी, रमेश सक्सेना और नरसिंहगढ नरेश भानुप्रताप सिंह उनके सहपाठी रहे। मीरा और महादेवी उनके कविता और गीत लेखन की प्रेरणा रही और शरतचंद्र चटोपाध्याय,शिवानी और कृष्णचंदर कहानी लेखन के लिए उनके आदर्श।

हँसते हुए मालतीजी ने बातचीत आरंभ की, 'शुरू-शुरू में मुझ पर ये इल्जाम भी लगा कि ये शरत बाबू की नकल करतीं हैं लेकिन आज जब कोई ऐसा कहता है तो मुझे अच्छा लगता है क्योंकि शरत बाबू जैसे सर्वकालिक महान लेखक की छाप मेरी कहानियों में दिखाई दे यह तो किसी भी लेखक के लिए गौरव की बात हो सकती है।

यह पूछने पर कि आपके लेखन से कैसे इतने भावपूर्ण कथाक्रम रचने में आए तो इस ऊँचे दर्जे की लेखिका ने अत्यंत विनम्रता से कहा कि इसमें मेरा कोई पराक्रम नहीं, शायद ईश्वर ने मेरे लिए यही ज़िम्मेदारी सोची थी। मराठी में मालतीजी की 11 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं लेकिन उनका मानना है कि हिन्दी ही उनकी जुबान है। उसी में वे सोचतीं हैं और उनका पाठकवर्ग भी हिन्दी में ही मौजूद है।

गुलजार, मंजूसिंह और जया बच्चन मालतीजी की कहानियों पर धारावाहिक बना चुके हैं। लिखने-पढ़ने की दुनिया में मगन रहने वाली इस समर्थ लेखिका का मानना है कि कागज पर लिखे से राब्ता बनाने का जो मजा है वह दृश्य में नहीं।

मैं मीरा मतवाली सी हूँ,तुम मेरे मनमोहन प्रियतम गीत को गाते हुए कविवर डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन ने सुना और मालती जोशी को मालवा की मीरा कहा। इन्दौर में खासा समय व्यतीत कर चुकीं मालती जीं को आज का इन्दौर बहुत भागता-भागता नज़र आता है।

वे कुमार गंधर्व निर्गुणी पदों की दीवानी हैं और मन में बस एक ही कसक पालतीं हैं कि इस महान गायक से प्रत्यक्ष मिलने का योग कभी न बन सका....बात को विराम देते हुए मालतीजी एक कुमार पद गुनगुना रहीं थी- 'मैं जान्यो नाहीं..पिया से मिलन कैसे होई री.....'

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