जाने-माने उपन्यासकार और कहानीकार कृष्ण बलदेव वैद का कहना है कि हिन्दी साहित्य में उनके खिलाफ एक खामोश साजिश है। कुछ आलोचकों ने बिना पढ़े उनके बारे में यह हवा उड़ाई कि वे अपठनीय हैं और उन्हें पढ़ना वक्त जाया करना है। अपनी पत्नी चम्पा वैद के चित्रों की एकल नुमाइश के सिलसिले में वे इंदौर आए हुए हैं। विशेष बातचीत उन्होंने कहा कि मेरे लेखन की भिन्नता या विलक्षणता के कारण एक सोची-समझी साइलेंसी रही है।
यह मेरा दुर्भाग्य है कि हिन्दी में यह हुआ, बावजूद इसके मेरी जुदा उपस्थिति है तो इसकी वजह साफ है। और वह यह कि मैंने इन तथाकथित आरोपों का जवाब नहीं दिया। न लिखकर और न ही किसी साक्षात्कार में। मैं तो इसका जवाब सिर्फ रचनात्मक स्तर पर निरंतर रचते हुए दे सकता था, जो मैंने किया। मेरे खिलाफ हिन्दी में जो खामोश साजिश है उसने मुझे ताकत ही दी है। सामाजिक यथार्थवाद मुझे उबाता है। अधिकांशतः एक बने-बनाए ढाँचे में इस यथार्थ को अभिव्यक्त किया गया है। मैंने किसी भी तरह के औचित्य का अंकुश स्वीकार नहीं किया और अपनी तरह से लिखा।
पत्नी चम्पा वैद के चित्रों की एकल नुमाइश के सिलसिले में कृष्ण बलदेव वैद इंदौर आए हुए हैं। विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि मेरे लेखन की भिन्नता या विलक्षणता के कारण एक सोची-समझी साइलेंसी रही है।
उल्लेखनीय है कि उसका बचपन, काला कोलाज, गुजरा हुआ जमाना, मायालोक उनके ऐसे उपन्यास हैं, जो यथार्थ को किसी भी रूढ़ ढाँचे में अभिव्यक्त नहीं करते, बल्कि नवाचार के जरिए परिदृश्य में हस्तक्षेप करते हैं।
वे कहते हैं, साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं 82 का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।