कहानी: सूरज की आखिरी किरणें जब शहर के ऊंचे अपार्टमेंटों से फिसलकर नीचे आतीं, तो नीलिमा देवी अपने लिविंग रूम की बालकनी में बैठी, सामने फैले कांच के जंगल को देखती रहतीं। 78 साल की नीलिमा देवी, कभी अपने घर की धुरी हुआ करती थीं, पर आज उन्हें लगता था कि वह बस एक पुरानी कुर्सी हैं, जिसे हॉल के किसी कोने में रख दिया गया हो। उनके बेटे, संजय और बहू, पूजा दोनों मल्टीनेशनल कंपनियों में ऊंचे पदों पर थे। पोता, आर्यन, भी दिन भर अपने गैजेट्स में खोया रहता।
सुबह का समय था, पूजा किचन में कॉफी बना रही थी। नीलिमा देवी ने धीरे से कहा, 'बहू, आज दाल में थोड़ा घी का तड़का लगा देना। संजय को पसन्द है।'
पूजा ने पलटकर देखा, उसके चेहरे पर हल्की सी झुंझलाहट थी। 'मां जी, प्लीज! आजकल कोई दाल में घी नहीं डालता। ये सब कोलेस्ट्रॉल बढ़ाता है। और वैसे भी, संजय को अब अपनी सेहत का ध्यान है।'
नीलिमा देवी चुप हो गईं। उन्हें याद आया, एक जमाना था जब वो जो कुछ बनाती थीं, पूरा घर चाव से खाता था। उनकी छोटी-छोटी सलाहें भी मायने रखती थीं। अब, उनकी राय को 'पुरानी बातें' कहकर टाल दिया जाता था।
शाम को आर्यन स्कूल से आया। नीलिमा देवी ने उसे पास बुलाया। 'आर्यन, आज स्कूल में क्या-क्या पढ़ा बेटा? मैंने सोचा था तुम्हें महाभारत की एक कहानी सुनाऊं?'
आर्यन ने बिना देखे ही जवाब दिया, 'दादी, अभी नहीं। मेरा ऑनलाइन गेम चल रहा है। और महाभारत? वो तो बोरिंग है। हमने स्कूल में 'फ्यूचरिस्टिक रोबोट्स' के बारे में पढ़ा है, जो पुराने लोगों की बातें नहीं सुनते।' आर्यन ने तपाक से जवाब दिया। नीलिमा देवी के सीने में एक टीस उठी। उन्हें लगा, जैसे उनके ज्ञान का पिटारा अब किसी काम का नहीं रहा।
संजय जब ऑफिस से आता, तो थका-हारा होता। वह सीधा सोफे पर बैठता और टीवी चला लेता। नीलिमा देवी कभी-कभी हिम्मत करके पूछतीं, 'बेटा, आज ऑफिस में सब ठीक रहा?'
संजय बिना आंखें उठाए कहता, 'हां मां, सब ठीक है। आप रहने दो, आपको समझ नहीं आएगा।'
यह वाक्यांश 'आपको समझ नहीं आएगा' अक्सर उनके कानों में गूंजता रहता।
परिवार में कोई भी बड़ा फैसला होता, तो नीलिमा देवी को अक्सर जानकारी सबसे अंत में मिलती, या मिलती ही नहीं। एक बार पूजा और संजय ने घर में एक बड़ा रेनोवेशन कराने का फैसला किया। उन्होंने नया किचन बनवाया, लिविंग रूम को फिर से सजाया, नीलिमा देवी ने सुझाव दिया, 'बेटा, पूजा घर थोड़ा बड़ा करवा लो, और अपनी पुरानी गणेश जी की मूर्ति वहीं रख देना।'
पूजा ने हंसकर कहा, 'मां जी, अब वो सब नहीं चलता। हमने मॉड्यूलर किचन बनवाया है और पूजा के लिए तो बस एक छोटी सी शेल्फ काफी है, आजकल कौन इतना बड़ा पूजा घर बनाता है!' नीलिमा देवी का सुझाव हवा में उड़ गया।
उनकी उपेक्षा का एक और बड़ा पहलू था उनकी सेहत। कभी घुटनों में दर्द होता, कभी बीपी ऊपर-नीचे होता। संजय और पूजा डॉक्टर के पास ले जाते, दवा दिलवाते, पर उनकी पुरानी बीमारियों और अकेलेपन से होने वाले मानसिक कष्ट को कोई नहीं समझता था। नीलिमा देवी अक्सर सोचतीं, 'इन्हें लगता है, बस दवा दे दी, काम खत्म।' उन्हें कोई अपने पास बिठाकर, आराम से उनकी तकलीफ नहीं सुनता था।
उनकी 'प्रासंगिकता' अब सिर्फ कुछ कामों तक सीमित रह गई थी जब मेड छुट्टी पर होती, तो घर का छोटा-मोटा काम देख लेना; आर्यन की स्कूल बस का समय होने पर उसे गेट तक छोड़ना; या जब कोई बाहर से सामान लाने वाला न हो तो दुकान से दूध लाना। यह सब उनसे 'अपेक्षा' थी, पर उनकी अपनी कोई 'उपस्थिति' नहीं थी।
एक दिन, संजय के दोस्त की पत्नी घर आई। बातों-बातों में उसने कहा, 'पूजा, तुमने देखा नहीं, सुनीता आंटी ने अपनी सासू मां को कितने अच्छे वृद्धाश्रम में रखा है! सारी सुविधाएं हैं वहाँ। और वो भी खुश हैं, क्योंकि वहां उनके उम्र के लोग हैं। घर में बूढ़ों का अकेले मन भी नहीं लगता, और यहां उनकी देखभाल भी हो जाती है।'
नीलिमा देवी ने यह सुना और उनके रोंगटे खड़े हो गए। उन्हें लगा, जैसे कोई अदृश्य हाथ उन्हें उनके ही घर से बेदखल करने की तैयारी कर रहा हो। उन्होंने देखा, पूजा और संजय ने एक-दूसरे की तरफ देखा और फिर बात बदल दी। पर वह फुसफुसाहट नीलिमा देवी के कान में गूंजती रही।
उन्हें अपनी पुरानी पड़ोसिन, सुधा मौसी की याद आई। सुधा मौसी को भी उनके बेटे ने शहर के बड़े वृद्धाश्रम में छोड़ दिया था। शुरू में तो सबने कहा, 'कितना अच्छा किया.' पर कुछ महीनों बाद सुधा मौसी बीमार पड़ गईं और उनका देहांत हो गया। नीलिमा देवी को लगा, जैसे उनकी भी नियति वही होने वाली है।
एक दिन, घर में सब कुछ गड़बड़ा गया। पूजा की ऑफिस में एक इमरजेंसी मीटिंग थी, संजय को भी अचानक शहर से बाहर जाना पड़ा और आर्यन की मेड छुट्टी पर चली गई। आर्यन का ऑनलाइन एग्जाम था और उसे अचानक लैपटॉप में दिक्कत आ गई। वह रोने लगा।
संजय ने हड़बड़ी में पूजा को फोन किया, 'पूजा, आर्यन का एग्जाम है। मेड नहीं आई। तुम क्या करोगी?'
पूजा परेशान होकर बोली, 'मुझे मीटिंग में जाना ही होगा। अब क्या करें?'
तभी नीलिमा देवी वहां आईं। 'क्या हुआ बेटा? आर्यन क्यों रो रहा है?'
संजय ने लगभग झुंझलाहट में कहा, 'मां, आप रहने दो, आपको समझ नहीं आएगा। इसके लैपटॉप में कुछ गड़बड़ हो गई है।'
नीलिमा देवी ने आर्यन के पास जाकर देखा। 'अच्छा, यह? बेटा, जब तेरी ऑनलाइन क्लास शुरू हुई थी, तब मैंने भी सीखा था यह।
देख, इसमें ये सेटिंग बदली है.' उन्होंने धीरे से आर्यन के लैपटॉप की एक सेटिंग ठीक कर दी। लैपटॉप चालू हो गया! आर्यन की आंखों में चमक आ गई। 'दादी! आपने कैसे कर दिया?'
नीलिमा देवी मुस्कुराईं। 'अरे बेटा, हम बूढ़े हैं, पर बेकार नहीं हुए। बस मौका नहीं मिलता कुछ करने का।'
उस दिन आर्यन के एग्जाम के बाद, नीलिमा देवी ने उसे गरमा गरम पराठे बनाकर खिलाए। आर्यन ने कई दिनों बाद दादी के हाथ का बना खाना खाया था। उसने कहा, 'दादी, आपके हाथ में तो जादू है! ये पराठे कितने टेस्टी हैं।'
संजय और पूजा जब रात को वापस लौटे, तो उन्हें घर में एक अजीब सी शांति और सुकून महसूस हुआ। आर्यन ने दौड़कर उन्हें बताया कि दादी ने कैसे उसका लैपटॉप ठीक किया और कितने स्वादिष्ट पराठे बनाए।
संजय ने पहली बार अपनी मां को ध्यान से देखा। उनके चेहरे पर थकान थी, पर एक हल्की सी मुस्कान भी थी। 'मां, आप कमाल हो!' उसने कहा।
नीलिमा देवी ने कुछ नहीं कहा, बस मुस्कुराईं।
उस रात, संजय और पूजा ने देर तक बात की। उन्हें अहसास हुआ कि वे अपनी मां को कितना कम समय देते हैं। उनकी 'उपयोगिता' सिर्फ घरेलू कामों तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनके अनुभव, उनके स्नेह और उनकी उपस्थिति में थी, जो घर को 'घर' बनाती थी।
अगले दिन, संजय ने अपनी मां के लिए सुबह की सैर का प्रबंध किया। पूजा ने किचन में उनसे पूछा कि कौन सी दाल कैसे बनती है। आर्यन ने शाम को अपना गैजेट छोड़कर दादी से महाभारत की कहानी सुनी।
रिश्ते तुरंत नहीं बदल गए, पर एक शुरुआत हो गई थी। नीलिमा देवी को अब भी अपनी पुरानी शॉल पसंद थी, पर अब उन्हें लगता था कि घर में उनकी जगह भी उतनी ही सुरक्षित और गर्म है जितनी उस शॉल में। उन्हें समझ आया कि आजकल के परिवेश में वृद्धों की प्रासंगिकता को अक्सर गलत समझा जाता है। उनसे अपेक्षा तो की जाती है कि वे चुपचाप रहें, बोझ न बनें और जरूरत पड़ने पर मदद करें, पर उनकी विद्वत्ता, अनुभव और भावनात्मक सहारा देने की क्षमता को अनदेखा कर दिया जाता है।
नीलिमा देवी मन ही मन सोच रहीं थीं कि लाखों बुजुर्ग जो आज भी अपने ही घरों में अपनी 'प्रासंगिकता' तलाश रहे हैं क्या वो भी इतने भाग्यशाली और परिवर्तनशील है कि जो समय और पीढ़ी के साथ सामंजस्य बना सकते हैं जो अपने घर के वातावरण में स्वयं के अस्तित्व को पुनः स्थापित कर पाते होंगे। घर की नींव तभी मजबूत होती है, जब उसमें पुरानी और नई ईंटें मिलकर रहें, और हर पीढ़ी एक-दूसरे के अनुभव और अस्तित्व का सम्मान करे। शायद तभी, हर घर एक 'आधुनिक' मकान नहीं, बल्कि एक सच्चा और गर्मजोशी से भरा 'घर' बन पाएगा।
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