कई जगह नौकरी के लिए कोशिश करने के बाद मजदूरी करने में ही उसने अपनी भलाई समझी। परिवार का पेट तो पालना ही था उसे। पत्नी भी मजदूरी करती थी संग-संग तो जैसे-तैसे गुजारा हो जाता था। पर अब बेटे को न जाने यह कौन सी अंग्रेजी बीमारी हो गई कि रोज ही खून की बॉटल लगवाओ। गरीब को कोई अपना खून क्यों देने लगा। इतना पैसा भी नहीं कि खरीद सके। बस अब तो सब भगवान की दया पर है। जिए या मरे। यही सोचकर वह दिहाड़ी पर जाने लगा और पत्नी सुनीता घर रहकर बेटे की देखभाल करती।
एक दिन ज्यादा हालत बिगड़ती देख वे दोनों बच्चे को लेकर फिर सरकारी अस्पताल पहुंचे लेकिन खून न मिल सका। सुनीता तो अपने आंचल में बेटे को समेटे रोए ही जा रही थी। उसे रोता देख समीप बैठे एक नौजवान ने उससे कारण पूछा और अपना रक्त देकर उन्हें थोड़ी राहत दी, पर होनी को जो मंजूर था वही हुआ।
बच्चा नहीं बचा। मां का रूदन थमने का नाम नहीं ले रहा था, मगर तभी सुरेश ने दुःखी ह्रदय से मन ही मन उस नौजवान का आभार व्यक्त कर यह प्रण ले लिया कि अब से वह हर जरूरतमंद के लिए रक्तदान करेगा, चाहे उसकी जान ही क्यों न चली जाए।