लघुकथा - कीर्ति पताका

65 पार कर चुके रमेश को अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। सदा प्रसन्न रहने वाले सेवानिवृत रमेश का भरा-पूरा परिवार था। आराम से गुजर रही जिंदगी में परिवर्तन तब आया, जब वे एक दिन सुबह की हवाखोरी कर वापस अपने घर आ रहे थे। रास्ते में उन्हें एक अपाहिज वृद्ध कराहते हुए दिखा। उनका मन करुणा से भर गया और वे उसके पास कुछ देने के लिहाज से पहुंचे। पर यह क्या, पास से देखने पर वह वृद्ध उनका परिचित निकला।
 
जेब में गया उनका हाथ वहीं रुक गया और वे उसकी खैर-खबर लेने लगे। रमेश को जानकर आश्चर्य हुआ कि उस वृद्ध को उनके इकलौते बहु-बेटे की बेरुखी ने इस हाल में पहुंचा दिया है। पक्षाघात के बाद हुई उनकी लगातार उपेक्षा ने उन्हें स्वतः ही घर छोड़ने को विवश कर दिया था। अब दिन जैसे-तैसे इधर-उधर भटक कर और रात बस स्टैंड पर सोकर गुजारते हैं।
 
राजेश की यह हालत देख रमेश का मन छटपटा उठा और उन्होंने मन ही मन एक संकल्प ले लिया और अपने सीमित साधनों से दूसरे ही दिन घर के पीछे बने हाल को "सेवा सदन" में बदल दिया। साथ ही परिचित राजेश को लाकर उसकी देखभाल की जिम्मेदारी ले ली। देखते ही देखते उनके "सेवा-सदन" की चारों ओर चर्चा होने लगी। रमेश के इस सेवा प्रकल्प से प्रभावित होकर उनके साथ उनके कुछ मित्र भी जुड़ गए और अब नित्य ही कोई न कोई निराश्रित सदस्य उनके सेवा सदन का हिस्सा बनने लगा। 
 
निश्छल सेवा भाव ने रमेश की शोहरत में चार चांद लगा दिए पर इस प्रसिद्धि का उन्हें जरा भी गुमान न हुआ और आज उनका सेवा सदन पूरे शहर में अपनी कीर्ति पताका फहराता नजर आता है। सच ! लोगों को कहते सुना जा सकता है अब - शोहरत मिले तो ऐसी। 

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