भारत के एक महान राता थे ययाति। इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।
शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। वहीं दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। ययाति बहुत ही राग और रंग में आनंद लेने वाला राजा था, लेकिन वह साथ ही प्राजा का भी ध्यान रखता था।
कुछ काल उपरान्त देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्रोत्पत्ति की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्य, अनु तथा पुरु हुए।
जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, 'रे ययाति! तू स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि तथा क्रूर है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूं तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।'
उनके शाप से भयभीत हो ययाति बोले, 'हे ब्रह्मदेव! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है।' यह सुनकर शुक्रचार्य ने कहा, 'अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।'
इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से कहा, 'वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो।'
यदु बोला, 'हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिए मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।'
ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की मांग की किन्तु सबसे छोटे पुत्र पुरु को छोड़ कर अन्य पुत्रों ने उनकी मांग को ठुकरा दिया। पुरु अपने पिता को अपनी युवावस्था सहर्ष प्रदान कर दिया।
पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, 'तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूं और मैं तुझे शाप भी देता हूं कि तेरा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।
कहते हैं कि राजा ययाति की अवस्था पूर्ण होने पर यमराज उन्हें लेने आते हैं तो वह यमराज से कहते हैं कि अभी तो मैंने जिंदगी में कुछ नहीं किया, ऐसे ही अतृप्त मुझे आप ले जागोगे तो कैसे मुक्ति मिलेगी। यमराज उन्हें कुछ और काल का समय दे देते हैं। इस तरह यमराज कई बार आते हैं और ययाति उन्हें याचना करके पुन: लौटा देते हैं।
इस तरह राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। अंत: में विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि इंद्रिय सुखों को ही सुख और आनंद मानने वाले को जीवनभर कभी भी तृप्ति नहीं मिलती है। अत: में वह अतृप्त ही मरता है। यदि व्यक्ति इंद्रिय सुखों को छोड़कर परम आनंद की ओर ध्यान देगा तो उसे कभी भी इंद्रिय सुख नहीं सताते हैं। परमानंद भगवान की भक्ति और ध्यान से ही मिलता है।