गीता सार- गीता देती हैं जीवन के बारे में सही परिप्रेक्ष्य- 3

जीवन के बारे में सही परिप्रेक्ष्य देती हैं भगवद्गीता

- अनिल विद्यालंकार 


 
प्रत्येक मनुष्य में अपने जीवन को और अन्य मनुष्यों के जीवन को सुधारने की इच्छा बहुत स्वाभाविक है। आजकल जब चारों ओर भ्रांति का वातावरण दिखाई दे रहा है, तब यह इच्छा और भी प्रबल हो गई है। पर हम किसी चीज को सुधार सकें इसके लिए यह जरूरी है कि हम पहले उस चीज को समझ लें। घड़ी या कम्प्यूटर को हम तब तक नहीं सुधार सकते, जब तक कि हम यह न जान लें कि वे कैसे बने हैं और कैसे काम करते हैं। मानव जीवन के बारे में भी यही बात लागू होती है। 
 
बिना यह जानें कि हमारा जीवन किन तत्वों से बना है और वे कैसे काम करते हैं, हम अपने जीवन को सुधार नहीं सकते। पर ऐसा प्राय: होता है कि जीवन के मूल तत्वों को समझे बिना ही हम अपने और औरों के जीवन को सुधारने का प्रयास प्रारंभ कर देते हैं। स्वभावत: ही इसका परिणाम चारों ओर की असफलता और निराशा में होता है। 
 
गीता मनुष्य को उसके सही परिप्रेक्ष्य में रखती है। परिवार, समाज, क्षेत्र और धर्म के निकटवर्ती संदर्भों से हटाकर वह मनुष्य को उस विशाल ब्रह्मांड के संदर्भ में ले आती है जिसका वह अभिन्न अंग है और जिसकी शक्तियां उसकी अनुभूतियों, विचारों, वाणी और कर्मों का प्रतिक्षण नियमन कर रही हैं। 
 
मनुष्य सोचता है कि वह एक अलग स्वतंत्र इकाई के रूप में अपनी सत्ता रखता है, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। सृष्टि के प्रारंभ से एक के बाद एक होने वाली घटनाओं का जो अटूट सिलसिला चला आ रहा है, मनुष्य उसका एक बहुत छोटा-सा अंग है। हम में से किसी के भी जन्म लेने से पूर्व असंख्य घटनाएं घटती रही थीं। अगर उस श्रृंखला में एक भी कड़ी गायब होती तो हम इस संसार में होते ही नहीं। 
 
अपने जीवन को समझने और इसकी समस्याओं को सुलझाने के लिए हमें संसार और अपने विषय में विशाल से विशाल परिप्रेक्ष्य रखने की आवश्यकता है। इस परिप्रेक्ष्य को विशाल बनाने के लिए हम स्वभावत: अपने चिंतन पर और चिंतन द्वारा किए गए अनुसंधान और खोज पर निर्भर करते हैं। हमने दर्शन और विज्ञान में अनेक सिद्धांत स्थापित किए हैं। 
 
हम ज्यादा से ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं और अब तो हम 'ज्ञान के विस्फोट' की अवस्था पर पहुंच गए हैं। पर जिसे हम अपना चिंतन कहते हैं और जिस पर हमें इतना गर्व है, वह भी तो प्रकृति में होने वाली घटनाओं का एक अटूट अंग है। जैसे कि हमारे फेफड़े सांस लेते रहते हैं और हमारा हृदय रक्त का प्रवाह करता रहता है, ठीक उसी तरह हमारा मस्तिष्क विचारों के रूप में भाषा उत्पन्न करता रहता है और हमें लगता है कि हम सोच रहे हैं।
 
श्री अरविंद ने कहा है- 'हम विचार नहीं करते, हमारे अंदर विचार उठते रहते हैं।' 
 
चिंतन की प्रक्रिया में 'मैं' नामक चिंतक का जन्म होता है। चिंतन से अलग चिंतक का अस्तित्व नहीं है। चिंतन की प्रक्रिया अक्षरश: चिंतक को जन्म देती है। हम चिंतन द्वारा अपने और संसार के बारे में अंतिम सत्य को नहीं जान सकते।
 
कृष्णमूर्ति ने कहा है- 'चिंतन के द्वारा कभी कोई समस्या नहीं सुलझी है और न आगे कभी सुलझेगी।'
 
विज्ञान और टेक्नोलॉजी के सुस्पष्ट और सीमित क्षेत्रों में चिंतन से कुछ समस्याओं का हल अवश्य मिलता है, पर अंतिम सत्य तक पहुंच सकना चिंतन के बस की बात नहीं है। 
 
इर्विन श्रडिंगर ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा कि सृष्टि की घटनाओं के आधार को तार्किक विचार से पकड़ पाना असंभव ही होगा, क्योंकि तार्किक विचार स्वयं भी तो उन घटनाओं का अंग है और उनमें पूरी तरह सन्निहित है। अंतिम सत्य को जानने के लिए हमें सभी शब्दों और सभी विचारों के परे जाना होगा। इनमें विज्ञान, दर्शन और धर्मग्रंथों के शब्द भी शामिल हैं। 
 
(जारी)
 
 
 

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