जब माता सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में कूदकर भस्म हो जाती है तो उसके बाद शिवजी गहन तपस्या में लीन हो जाते हैं। इस दौरान दो घटनाएं घटती हैं पहली तो यह कि तारकासुर नामक असुर तपस्या करके ब्रह्मा से यह वरदान मांग लेता है कि मुझे सिर्फ शिव पुत्र ही मार सके। क्योंकि तारकासुर जानता था कि सती तो भस्म हो गई है और शिवजी तपस्या में लीन है जो हजारों वर्ष तक लीन ही रहेंगे। ऐसे में शिव का कोई पुत्र ही नहीं होगा तो मेरा वध कौन करेगा? यह वरदान प्राप्त करके वह तीनों लोक पर अपना आतंक कायम कर देता है और स्वर्ग का अधिपति बन जाता है।
जब यह बात देवताओं को पता चलती है तोसभी मिलकर विचार करते हैं कि कौन शिवजी की तपस्या भंग करें। सभी माता पार्वती के पास जाकर निवेदन करते हैं। माता इसके लिए तैयार नहीं होती है। ऐसे में सभी देवताओं की अनुशंसा पर कामदेव और देवी रति शिवजी की तपस्या भंग करने का जोखिम उठाते हैं। शिवजी के सामने फाल्गुन मास में कामदेव और रति नृत्यगान करते हैं और फिर कामदेव एक एक करके अपने बाण को शिवजी पर छोड़ते हैं। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को शिवजी की तपस्या भंग हो जाती है। तपस्या भंग होते ही उन्हें सामने कामदेव नजर आते हैं तो वे क्रोध में अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर देते हैं।
यह देखकर रति के साथ ही सभी देवी और देवता दु:खी हो जाते हैं। देवी रति विलाप करने लगती हैं। कामदेव की पत्नी रति ने भगवान शिव से क्षमा याचना की और कहा कि इसमें मेरे पति की कोई गलती नहीं थी। शिवजी को जब सारा माजरा समझ में आता है तो वे रति को वरदान देते हैं कि तुम्हारा पति द्वापर में श्रीकृष्ण रुक्मिणी के यहां पुत्र रूप में जन्म लेगा। शिवजी पार्वती से विवाह करने की सहमति भी देते हैं। यह सुनकर प्रसन्न होकर सभी देवता फूल और रंगों की वर्षा करके खुशियां मनाते हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार होलिका का दहन होली के दिन किया जाता है और दूसरे दिन धुलैंडी पर रंग खेला जाता है। धुलैंडी पर रंग खेलने की शुरुआत देवी-देवताओं को रंग लगाकर की जाती है। इसके लिए सभी देवी-देवताओं का एक प्रिय रंग होता है और उस रंग की वस्तुएं उनको समर्पित करने से शुभता मिलती है, उनकी कृपा प्राप्त होती है, जीवन में समृद्धि मिलती है, खुशहाली आती है और धन-धान्य से घर भरे हुए होते हैं।