तब देख बहारें होली की

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ऊँच-नीच का भेद मिटाने वाला होली का त्यौहार सबको रंगों में सराबोर करता है तभी तो ... शायर मिजाज अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने जहाँ कहा- क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी देखो कुँअर जी दूँगी गारी.. वहीं आधुनिक हिन्दी खड़ी बोली के अग्रज भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने इसे कुछ इस तरह बयाँ किया ...
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गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ए यार होली में...।

फागुन में पलाश के फूलों के रंग और हवा के झोंकों से पक कर टपकते महुआ की महक ने होली में प्रेम की मिठास घोली है और होली का यह मेघ हिन्दी साहित्य में भी जमकर बरसा।

लोक कवि के नाम से मशहूर नजीर अकबराबादी ने बहुत ही सहज लहजे में होली को कुछ यूँ बयाँ किया ......

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारे होली की।
और ढफ के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों
तब देख बहारें होली की।
खम शीश ए जाम छलकते हों
तब देख बहारें होली की

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आगे उन्होंने लिखा है.....

.गुलजार खिले हों परियों के
और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से
खुश रंग अजब गुलकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तक कर मारी हो......
तब देख बहारें होली की।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी साहित्य के प्राध्यापक आर के गौतम ने बताया कि मध्यकाल के अष्टछाप कवियों की रचनाओं में होली का रंग जमकर बरसा है।