#अधूरीआजादी : 'प्रधानों' की पंक्ति में प्रथम?

सुशोभित सक्तावत
मंगलवार, 8 अगस्त 2017 (16:56 IST)
कैमरे की आंखें नरेंद्र मोदी के चेहरे से डिगती नहीं। सम्मोहित सी पीछा करती रहती हैं और कैमरे के उस मुग्ध पर्यवेक्षण से स्वयं मोदी की अटूट मैत्री है। मोदी के कहे गए एक-एक शब्द को मीडिया के मानसरोवर के हंस अहर्निश चुगते रहते हैं। नरेंद्र मोदी आज एक ऐसा दुर्दम्य नाम है, जो सार्वजनिक विमर्श को ध्रुवीकृत करने की क्षमता रखता है। ऐसा प्रभावक्षेत्र, ऐसी लोकप्रियता और इतनी परिव्याप्ति वाला कोई और भारतीय राजनेता निकट-स्मृति में तो नहीं आता।
 
लेकिन इसके बावजूद क्या यह कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी भारत के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं?
 
वास्तव में मौजूदा वक़्त के साधनों ने जिस तरह से महज तीन डग में दुनिया नाप लेने की विराट-क्षमता हमें दे दी है, उसके परिप्रेक्ष्य में इस तरह का कोई भी सर्वकालिक आकलन करना हमेशा ही दुष्कर लगता है। एक कालखंड के मिथक की तुलना दूसरे से करने पर दिक़्क़तें आती हैं।
 
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भारत-विभाजन जैसी त्रासदी के बावजूद पं. जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता भोगी थी। सत्रह साल देश पर राज किया और मृत्यु के उपरांत ही उनका सिंहासन ख़ाली हो सका, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि सन् 1952 के लोकसभा चुनाव से पहले नेहरू अपनी लोकप्रियता को लेकर सशंकित हो उठे थे और अनेक स्वर उनके विरोध में उठ खड़े हुए थे। असुरक्षा की भावना ने नेहरू को इस क़दर घेर लिया था कि वे देशाटन पर निकल पड़े। पूरे देश का चक्कर लगाया और गांव-गांव, शहर-शहर में सभाओं को संबोधित किया। आम जनजीवन से जीवंत संपर्क के कारण उनका आत्मविश्वास लौटा और जब चुनाव परिणाम आए तो नतीजों ने रहे-सहे संशय को भी दूर कर दिया। पूरे 62 साल बाद 2014 के चुनावों में वैसा ही देशाटन नरेंद्र मोदी ने भी किया था और देश का राजनीतिक वातावरण नरेंद्र मोदी की "साउंडबाइट्स" से भर गया, लेकिन नेहरू और मोदी ने इन प्रचार अभियानों के दौरान जिस लोकप्रियता का जीवंत साक्षात किया था, उनके मायने स्वयं उनके लिए क्या थे? वह कितना स्वतःस्फूर्त था कितना प्रायोजित? लहर की धुरी कहां पर थी? जानने का उपाय नहीं। 
 
लालबहादुर शास्त्री पाकिस्तान से जंग जीतकर चीन से मिली शर्मनाक हार का नैराश्य मिटाने में सफल रहे थे। "जय जवान जय किसान" का नारा लगाने वाला यह ख़ुद किसानों जैसा दिखने वाला प्रधानमंत्री लोगों के दिल में घर कर गया था, लेकिन मृत्यु ने असमय ही उन्हें हमसे छीन लिया। रामचंद्र गुहा ने अपने एक लेख में इस पर मंथन किया है कि अगर लालबहादुर शास्त्री ने नेहरू की तरह 17 साल देश पर राज कर लिया होता तो क्या होता और तब भारतीय राजनीति में कांग्रेस के "प्रथम परिवार" की भूमिका कैसी रही होती? यह जानने का अब कोई तरीक़ा नहीं।
 
इंदिरा गांधी "गूंगी गुड़िया" के रूप में प्रधानमंत्री बनी थीं, लेकिन 1971 की लड़ाई के बाद "लौह महिला" के रूप में स्थापित हुईं। कांग्रेस की राजनीति में जिस समाजवादी पूर्वग्रह की छाप आज तलक नज़र आती है, वह इंदिरा गांधी की ही देन है। उनका "ग़रीबी हटाओ" का नारा वस्तुत: ग़रीबी के राजनीतिक पूंजी के रूप में दोहन करने की एक युक्त‍ि भी रही है। वंचित तबक़े के बीच इंदिरा की अथाह लोकप्रियता रही। आदिवासी महिलाओं के बीच जाकर नृत्य करने की उनकी तस्वीरें तब अख़बारों में यदा-कदा छपती रहती थीं और उस "प्रियदर्शिनी छवि" का दोहन सत्यजित राय ने भी अपनी अंतिम फ़िल्म में किया है। आपातकाल ने इंदिरा की राजनीतिक विरासत को हमेशा के लिए कलंकित कर दिया, लेकिन अगर आपातकाल नहीं होता तो क्या इंदिरा गांधी देश की सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री कहलाने की हक़दार नहीं थीं? 
 
राजीव गांधी एक ताज़ा चेहरा लेकर राजनीति में आए थे। सौम्य छवि, भविष्य पर नज़र, युवा नेतृत्व। 1990 का दशक आते-आते राजीव का वह आभामंडल शाहबानो, रामलला, मंडल कमीशन और बोफ़ोर्स की "चतुष्टयी" में छिन्न-भिन्न हो गया। देश की गलियां "बोफ़ोर्स के दलालों को जूते मारो सालों को" और "गली गली में शोर है राजू गांधी चोर है" के कालजयी नारों से पट गई, किंतु 1991 के एक आत्मघाती धमाके ने जो कई चीज़ें कीं, उनमें से एक यह भी थी कि उसने राजीव गांधी की राजनीतिक विरासत पर जारी बहस पर लंबे समय के लिए एक सदाशय विराम लगा दिया। इसने केंद्र की राजनीति में पीवी नरसिंहराव का राजतिलक भी किया, और इसी के साथ राष्ट्रीय राजनीति में "मंडल, मंदिर और मार्केट" का "त्रिवेणी संगम" हुआ, जिससे आज तक जलधाराएं फूट रही हैं! 
 
वीपी सिंह एक ज़माने में शुचिता की राजनीति की कितनी बड़ी उम्मीद थे, जिन्हें वह याद है, वे ही आज इसकी ताईद कर सकते हैं। अटलबिहारी वाजपेयी मंत्रमुग्ध कर देने वाली वक्तृता शैली के नेता थे। विपक्ष में भी लोकप्रिय, किंतु पहले 13 दिन और फिर 13 महीने में प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवाकर और फिर गठबंधन सहयोगियों की बैसाखियों के बलबूते पांच साल की वैतरणी पार करने वाले अटलबिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता भाजपा को केंद्रीय सत्ता में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित नहीं ही कर सकी थी। एक भी लोकप्रिय चुनाव जीते बिना दस साल राज करने वाले मनमोहन सिंह का नाम लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों की कड़ी में हरगिज़ नहीं लूंगा! 
 
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यही कारण है कि आज जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा केंद्र में पूर्ण बहुमत से सत्तासीन है, देश के अनेक राज्य भगवा रंग में रंग गए हैं, जिनमें उत्तरप्रदेश जैसा राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य भी बहुमत के साथ भाजपा के खाते में है और हाल ही में बिहार भी शरणागत हो गया है, जब नरेंद्र मोदी नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, योगी की घटस्थापना, जीएसटी जैसे साहसी निर्णय लेने का आत्मविश्वास निरंतर प्रदर्श‍ित कर रहे हैं और विदेशों में भारत की स्वीकार्यता लगातार बढ़ती जा रही है, तो इन तथ्यों ने आज मोदी को लोकप्रियता के उस शिखर पर स्थापित कर दिया है, जहां पर इससे पहले कोई और भारतीय प्रधानमंत्री पहुंच नहीं सका था।
 
दाग़ उनके दामन पर लगे हैं, लेकिन वर्तमान समय "स्मृतिलोप के व्याकरण" में रचा-बसा है और आज कोई भी "2002 की शवसाधना" में यक़ीन नहीं रखता। कार्यकाल के तीन साल पूरे करने के बाद आज मोदी की स्थिति सुदृढ़ है और 2019 की विजय-पताका को वे अभी से फहराता देख सकते हैं। कुल मिलाकर देश में आज नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक "पॉलिटिकल नैरेटिव" जम चुका है! 
 
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने सावरकर और हेडगेवार के बजाय गांधी और आंबेडकर का नाम अधिक जपा है। दलित पुत्रों के लिए गलदश्रु बहाए हैं और गोरक्षकों को फटकार लगाई है। आप देख सकते हैं कि मोदी महाराज की दिशा क्या है। 
 
अगर आज नरेंद्र मोदी से पूछा जाए कि एक "हिंदू राष्ट्र" के निर्माण और 2019 की जीत में से वे क्या चुनना चाहेंगे तो उनके कट्टर से कट्टर "भक्तों" को भी मालूम होगा कि मोदी क्या चुनेंगे. कुल मिलाकर मोदी जल्दबाज़ी में नहीं हैं, ऐसे में उनके उग्र "भक्तों" को भी अब किंचित "प्रकृतिस्थ" हो जाना चाहिए। 
 
महानता मुफ़्त में नहीं मिलती, उसकी एक क़ीमत होती है!

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