देश के विकास का कौन है असली हकदार

देश के भीतर जो भी बदलाव और उन्नति होती है, उसके असल के हकदार दो ही तत्व हैं। पहला, देश का नागरिक और दूसरा प्रशासन। दोनों में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व का बोध, मेरिट के आधार पर कार्य, कर्तव्य का बंटवारा और जिम्मेदारी को निर्वहन करने की भावना होने पर हम किसी भी लड़ाई को आसानी से जीत लेंगे। आतंकवाद पर भी इसी के सहारे जीत हासिल की जा सकती है।


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किसी भी देश की सुरक्षा केवल उसके सुरक्षा बल नहीं कर सकते। इसमें जितना बड़ा योगदान सुरक्षा बल का होता है, उतना ही देश की प्रशासनिक मशीनरी और आम जनता का भी होता है। जरा सोचिए, दहशतगर्द आते हैं और लावारिस बम छोड़ जाते हैं। कुछ समय बाद वहीं बम लोगों के चिथड़े उड़ा देता है, लेकिन ऐसे उदाहरण याद नहीं जब किसी नागरिक ने पुलिस को सूचना देने की जहमत उठाई हो।

अलबत्ता ऐसी किसी विस्फोटक घटना के बाद देश में खुफिया तंत्र के फेल होने, सुरक्षा तंत्र के नाकाम होने की खबरों का संसार खड़ा हो जाता है। नई राजनीति शुरू हो जाती है। आखिर यह क्या है? याद रखिए देश की सुरक्षा केवल संगीनों के साए में नहीं हो सकती।



अब हमारे देश में पुलिस, पुलिस बल की संख्या, तैनाती, उनके पास उपलब्ध हथियार को देख लीजिए। उनके प्रशिक्षण को देख लीजिए। मेरे ख्याल में यह इतना नहीं है कि इसके सहारे आतंकवाद, नक्सलवाद, साइबर क्राइम जैसे नए और काफी गंभीर किस्म के अपराधों का सामना किया जा सके।

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पुलिस बल को इस तरह का प्रशिक्षण ही नहीं मिल पा रहा है। उन्हें नए हथियारों की जानकारी नहीं है। उसे चलाने उसके उपयोग की जानकारी नहीं है। उनके पास बचाव और निगरानी के उपकरण नहीं हैं। इतना ही नहीं खुफिया एजेंसियों को भी हमने उतना धारदार नहीं बनाया।

पुलिस आम नागरिकों का विश्वास हासिल नहीं कर सकी। लोग पुलिस थाने में जाने, शिकायत करने, सूचना देने, सच्चाई बताने में डरते हैं। आम नागरिक और पुलिस के बीच संवाद नहीं है। विश्वास और प्रेम नहीं है। लोगों को गलत काम करने वालों से उनकी सुरक्षा की गारंटी देने वाली पुलिस देश के नागरिकों को अपनी मित्र ही नहीं नजर आती।

ऐसे किसी के घर में कोई भी बड़ा आतंकी आकर पनाह ले लेगा, स्लीपिंग सेल डेवलप कर लेगा, आतंकी माड्‌यूल बन जाएंगे और कुछ दिन बाद वह लोगों को प्रशिक्षित करके उन्हें बम बनाना सिखाकर देश के किसी भी कोने पर तैयार किए लोगों के सहारे बम विस्फोट कराकर चलता बनेगा।



हम शोर मचाते रहेंगे और आतंकी घटना के सूत्रधार खोजते रहेंगे। आतंकवाद के बढ़ने, घातक होते जाने की मौजूदा वजह यही है। यदि सुरक्षा जैसी सुविधा उपलब्ध कराने वाली हमारी प्रारंभिक ईकाई ही इतनी सक्षम हो कि लोगों को उसके पास आने में भय न लगे।

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वह लोगों को उनकी दोस्त, सच्चे कार्य करने वालों की मददगार और अपराधियों, भ्रष्टाचारियों, माफिया की दुश्मन नजर आए तो बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। लेकिन, इसके लिए जरूरी है कि हर कार्य और निर्णय में मेरिट को वरीयता दी जाए। पुलिस को साजो-सामान, प्रशिक्षण दिए जाएं। उसे आधुनिक बनाया जाए और नए कौशल सिखाए जाएँ। शहीदों, सुरक्षा बलों के योगदान को उनकी मेरिट के आधार परखकर उन्हें महत्व दिया जाए।



जब हम इस नजरिए से देखते हैं तो काफी कुछ संकुचित पाते हैं। एक घटना याद है। 26 नवंबर 2008 को मुंबई में आतंकी हमला हुआ था। उसे राज्य पुलिस को सहयोग करते हुए एनएसजी के जवानों ने पूरी बहादुरी से नाकाम कर दिया था। हमारे पास जो संसाधन थे, उसमें हमने बेहतर कौशल दिखाते हुए आतंकियों को समेट लिया।

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इसके बाद क्या हुआ? मुझे नहीं कहना चाहिए, लेकिन जो भी हुआ उससे मुझे कोई बहुत खुशी नहीं होती। एनएसजी के साथ जो वादा किया गया था उसे ही नहीं निभाया गया। उसमें भी क्या मेरिट पर हुआ और क्या नहीं देखने की जरूरत है।

याद रखिए सुरक्षा बल राष्ट्र की रक्षा के लिए बिना किसी हिचक के अपनी जान दे देता है। क्योंकि, उसे फख्र होता है कि वह देश के दुश्मन का सामना कर रहा है। लेकिन, वह प्रशासनिक मशीनरी से भी यह अपेक्षा रखता है कि वह दुरुस्त तरीके से मेरिट को वरीयता देगी। जिस दिन हम इस राह पर चल पड़ेंगे, चाहे आतंकवाद या नक्सलवाद या फिर कोई और चुनौती, हम उससे निबट लेंगे। इसके लिए यह नहीं होना चाहिए कि पासपोर्ट एक हफ्ते में बनने का आश्वासन मिला था और पांच हफ्ते बाद भी नहीं मिला। या फलां का पुलिस वेरिफिकेशन नहीं हुआ।



देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय भी घोटाले हुए थे। तब घोटाले जैसी भनक के बाद केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री तक अपने पद से इस्तीफा देने जैसा कदम उठा लेते थे। आज उससे कई गुना बड़े और विशाल घोटाले हो रहे हैं।

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सुरेश कलमाड़ी षड्‌यंत्र से राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति का चेयरमैन बनकर बेलगाम हो गए, और पूरी दुनिया में देश की बदनामी करा रहे हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम एवं लाइसेंस आवंटन जैसा घोटाला हो रहा है, नेता इसमें भी ढिठाई का परिचय दे रहे हैं।

हम पहले केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को नियुक्त कर रहे हैं, उसे सही ठहराने की हर भरसक कोशिश कर रहे हैं और बाद में न्यायालय को दखल करके नियुक्ति को अवैध करार देना पड़ रहा है। देश का यह चेहरा ठीक नहीं है। लोकतंत्र का आशय लोगों को कुछ भी करने की अंधाधुंध छूट देना नहीं है।

समझ में नहीं आता कि लोग प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं लाना चाहते? न्यायपालिका को सरकार अलग क्यों रखना चाह रही है? क्या इन पदों पर भ्रष्ट लोगों के आने की संभावना है, जो सरकार इतना डरी है।



देश का संविधान सबको समान अधिकार देता है। किसी को भी नियम विरुद्ध कुछ भी करने की इजाजत नहीं है। फिर क्यों यह श्रेणियां बनाई जा रही हैं? क्या इससे भ्रष्टाचार रुक जाएगा? बिलकुल नहीं, इस तरह के क्रियाकलापों से स्थिति और खराब होगी।

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इतिहास गवाह है कि सीवीसी, सीबीआई, सीएजी, नए कानून और तामझाम से कभी भ्रष्टाचार नहीं रुका! बल्कि दिन दूना, रात चौगुना बढ़ा। इसलिए एक लोकपाल भी इस पर लगाम नहीं कस पाएगा लेकिन, कम से कम हमारे प्रयास तो उदार हों। कैश फॉर वोट मामले में संसद का यह कहकर जांच को पुलिस के हवाले कर देना कि संसद भवन के भीतर पैसे का लेन-देन नहीं हुआ, आखिर कहां जांच और न्याय है?



साफ सी बात है कि जब तक सरकार और प्रशासक मेरिट को वरीयता नहीं देंगे, प्रशासनिक कार्यों में ईमानदारी नहीं लाएँगे, तब तक कुछ भी सुधरने की गुंजाइश कम है। देश में राज करने के तरीके से लोगों में जीने का अनुशासन आता है।

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इससे सत्ता और नागरिकों के बीच विश्वास बढ़ता है तथा ऐसा होने पर भ्रष्टाचार, अपराध, अनैतिकता में भारी कमी आती है। इसी के जरिए हम लोगों की सोच और उनका मानस बदल सकते हैं।

इसी से नागरिकता की भावना जोर पकड़ती है। सुरक्षा बल भी इसी समाज का हिस्सा होते हैं। इसी से वह भी सीखते हैं। सब अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं, जब भी ऐसा प्रयास होगा तो आतंकवाद, नक्सलवाद से लेकर सभी समस्याओं से हम आसानी से निबट लेंगे। पुलिस कभी राज नहीं करती। पुलिस के प्रति लोगों का विश्वास राज करता है। जब ऐसी स्थिति आती है तो अपराधी, भ्रष्ट, कानून तोड़ने वाले भय खाते हैं। लेकिन, आज की पुलिस देख लीजिए तो सबकुछ समझ में आ जाएगा।

(लेखक एनएसजी के पूर्व प्रमुख हैं)

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