पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भाषा-व्याकरण के साथ ही तत्कालीन लोकाचार का भी संक्षिप्त वर्णन मिलता है। इसके अलावा उसमें विभिन्न पकवानों का भी जिक्र है। पाणिनी के काल में 25 मन का बोझ 'आचित' कहलाता था और जो रसोइया इतने अन्न का प्रबंध संभाल सके, उसे 'आचितक' कहते थे। पाणिनी ने 'अष्टाध्यायी' में 6 प्रकार के धान का भी उल्लेख किया है- ब्रीहि, शालि, महाब्रीहि, हायन, षष्टिका और नीवार। पाणिनी के काल में मैरेय, कापिशायन, अवदातिका कषाय, पीठा, अपूप, दाधिक, कालिका नामक मादक पदार्थों का प्रचलन था। आओ जानते हैं कि उनके काल में यवक क्या था और यह कैसे बनता था।
यावक : पाणिनी ने लिखा है कि उत्तरी राजस्थान के साल्व जनपद में 'यवागू' (जौ की लप्सी) खाने की प्रथा थी। जौ को ओखल में कूटकर पानी में उबाला जाता और फिर दूध-शकर मिलाकर 'यावक' नामक व्यंजन बनाया जाता।
चरक संहिता में लिखा है-
अन्ने पंचगुने साध्यं विलेपीनु चतुर्गुणे,
मंडश्च्तुर्दाशगुणे यवागू: षडगुणेsम्भसी।।
अर्थात : अन्न के 5 गुने जल में बनाई लप्सी पानयोग्य पदार्थ को 'यवागू' या पेय कहते हैं। जो यवागू, पिप्पली, पिप्पली मूल (पीपलामूल), चवी (चव, चविका), चित्रक (चिता) और नागर (सोंठ) इन औषधियों के साथ बनाकर तैयार की जाती है। यह जठराग्नि को तृप्त करती है और पेट में उठने वाले दर्द को शांत करती है।
औषधि हेतु तरल यवागू 3 प्रकार की होती हैं- पेय, माण्ड और विलेपी या लप्सी। यह पेट के लिए अत्यंत ही लाभदायक है।
* पेय : 10 ग्राम सोंठ और 10 ग्राम पीपल की पोटली बना लें। 50 ग्राम जौ या गेहूं का दलिया लेकर 120 मिलीलीटर पानी में पकाएं और पोटली को पानी में लटका दें। आधा पानी शेष रहने पर उतार लें और रोगी को पिलाएं।
* चावल का पानी या माण्ड : 10 मिलीलीटर की मात्रा में चावल का पानी लें और फिर इसे 140 मिलीलीटर पानी में औटाएं। चौथाई पानी बचने पर रोगी को सेवन कराएं।
* विलेपी या लप्सी : 10 ग्राम चावल के आटे में 40 मिलीलीटर पानी मिलाकर आग पर औटाएं। जब यह पककर लप्सी बन जाए तो उतार लें और रोग में इसका इस्तेमाल करें।