23 अप्रैल 2003 की सुबह राष्ट्रपति भवन से एक फोन आया। दूरभाष के दूसरी तरफ से आवाज आई, मैं राष्ट्रपति का प्रेस सचिव एमएम खान बोल रहा हूं। आज आप क्या कर रहे हैं? मैंने कहा, कुछ विशेष नहीं। हां, आज मेरा जन्मदिन है। अत: दरियागंज के... मैं कुछ बोलूं, इससे पूर्व उधर से आवाज आई- हां, मैं जानता हूं, आज आपका जन्मदिन है और इसीलिए महामहिम राष्ट्रपति आपको दोपहर के भोजन पर आमंत्रित करना चाहते हैं।
मैं थोड़ा चौंका। महामहिम राष्ट्रपति प्रो. कलाम साहब से मेरा कोई विशेष परिचय तो था नहीं। फिर न ही वे हिन्दीभाषी हैं और न मैं कोई इतना बड़ा लेखक कि वे मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते हों! मैंने कहा, मेरा सौभाग्य होगा। सुबह मैं दरियागंज एक अंध-विद्यालय में कई बरसों से जा रहा हूं। वहां के विद्यार्थियों के साथ अपना जन्मदिन मनाता आ रहा हूं। हां, शाम के समय पत्नी और बच्चों के साथ भोजन पर जाने का कार्यक्रम अवश्य था, पर दोपहर में तो एक तरह से मैं मुक्त ही हूं। तब उधर से खान साहब बोले, तो फिर ठीक है। आज दोपहर आप यहां राष्ट्रपति भवन पधारे। शेष बातें मिलने पर ही होंगी।
बहुत देर तक तो मैं यह भी सोचता रहा कि संभवत: किसी मित्र ने शायद मजाक किया हो। हालांकि ऐसा भी नहीं था कि राष्ट्रपति भवन के द्वार मेरे लिए अनजाने हों। महामहिम ज्ञानी जेलसिंह से लेकर महामहिम डॉ. शंकरदयाल शर्मा तक मेरे निजी व्यक्तिगत और अंतरंग संबंध रहे हैं और बरसोबरस उनका स्नेहभाजन भी रहा हूं। सरदार भगतसिंह पर लिखीं मेरी ज्यादातर पुस्तकों का लोकार्पण भी वहीं हुआ है। यूं मेरे पूज्य पिता पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास जब तक राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति रहे, राष्ट्रपति भवन भी ही ठहरते थे। सन् 1956 से सन् 1962 तक दिल्ली में उनका आवास 'राष्ट्रपति भवन' में ही होता था और कर्जन रोड के सरकारी आवास पर रहता हुआ मैं रोज सवेरे इंडिया गेट पर भ्रमण करते हुए यह सोचता भी था कि मैं तो खैर सन् 1980 से दिल्ली में रहता हूं, साहित्य जगत में थोड़ा-बहुत लिखता-पढ़ता हूं।
दूरदर्शन पर एक वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते और कुछ-कुछ पिताजी की महानता की वजह से इन महामहिमों का स्नेह पाता रहा हूं। सोचता रहता था, उज्जैन में रहने वाले पिताजी का कद कितना बड़ा था, जो इस राष्ट्रपति भवन में न सिर्फ स्वयं ठहरते थे, अपितु उनके सेवकगण भी उनके साथ दो-दो माह इसी राष्ट्रपति भवन (पं. व्यास के लिए विशेष तौर पर तैयार अतिथिगृह) में ही ठहरते थे। यह भी भारत के इतिहास का महत्वपूर्ण पन्ना है, जब स्वयं राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद अपने सारे विधि-विधान (प्रोटोकॉल) को एक तरफ रख पं. व्यास के आवास 'भारती-भवन' उज्जैन पहुंच जाया करते थे और घंटों-घंटों दिनोदिन मंत्रणा करते थे। एक बार तो वे तीन दिन उज्जैन में हमारे आवास पर रुके थे। तब उज्जैन में कोई सरकारी आवास या रेस्ट-हाउस नहीं बने थे। आज भी लगभग दो हजार से अधिक पत्र इन दोनों महापुरुषों के मेरे पास राष्ट्र की धरोहर के रूप में सुरक्षित हैं।
लेकिन यह प्रसंग तो बिलकुल ही अलग था, क्योंकि न तो कलाम साहब व्यासजी से परिचित थे, न ही उन्हें मेरा दूरदर्शन का अधिकारी होना मालूम था और जैसा मैंने पहले कहा है, चूंकि वे हिन्दीभाषी नहीं हैं, अत: मेरा यह उम्मीद करना अर्थहीन ही था कि उन्होंने मुझे अकिंचन कभी पढ़ा होगा। सो डरते-डरते अपने एक मित्र का वाहन लेकर मैं और मेरा परिवार राष्ट्रपति भवन पहुंचा। पहले भी अनेक बार राष्ट्रपति भवन गया था, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता था कि आप और आपके वाहन की कभी सुरक्षा-जांच भी न हो। यह बात एक सुखद विस्मय की तरह लगी। मेरे आने की सूचना राष्ट्रपति भवन की सड़क से लेकर प्रवेश-द्वार तक पहले ही पहुंच चुकी थी। अत: सारे रास्ते आदरपूर्वक सीधे मुख्य द्वार तक वाहन को जाने दिया गया और वहां खड़े स्वागत अधिकारियों ने बगैर एक क्षण लगाए, फिर बगैर सुरक्षा जांच किए राष्ट्रपति महामहिम प्रो. कलाम के अध्ययन-कक्ष में पहुंचा दिया।
हम वहां खड़े हो, चकित हो चारों तरफ देख रहे थे, हम यानी मैं, मेरी श्रीमती जयिनी और मेरे दोनों बेटे चि. सूर्यांश एवं चि. दिव्यांश। हम कुछ सोचें, इससे पूर्व महामहिम कलाम ने कक्ष में प्रवेश किया और हमारे प्रणाम से पूर्व ही सीधे मुझे गले लगाया। इस व्यवहार से अभिभूत और अवाक पत्नी और बच्चे, जो तब तक प्रणाम करना भूल एक बड़े आदमी के सौजन्य और स्नेह को देखते रह गए। तब फिर दो क्षण बाद सूर्यांश और दिव्यांश ने उनके चरण छुए। उन्होंने बड़े प्यार से दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा।
लेखक राजशेखर व्यास सपरिवार डॉ. कलाम के साथ
इन्हें लेकर सहज और उत्फुल्ल होकर सामने रखे सोफे पर बैठ गए। मैं कुछ बोलना शुरू करूं, इससे पहले उन्होंने मुझे बताया कि वे मुझसे और मेरे साहित्य से सुपरिचित हैं। विशेषकर सरदार भगतसिंह पर किए गए मेरे शोध और अनुसंधान एवं ग्रंथों से बेहद प्रभावित हैं। बल्कि मेरी भगतसिंह पर लिखी एक पुस्तक को पढ़कर तो वे भगतसिंह के गांव भी हो आए। हालांकि अब भी वे अंग्रेजी में ही बोल रहे थे और मैं कुछ-कुछ महसूस करने की मुद्रा में आऊं, उससे पूर्व उन्होंने यह भी बता डाला कि राष्ट्रपति भवन के एक अधिकारी को उन्होंने सिर्फ इसी काम में लगा रखा है कि वह सरदार भगतसिंह पर लिखे मेरे ग्रंथों का अनुवाद कर उन्हें देता रहे।
एक वैज्ञानिक का एक क्रांतिकारी के प्रति यह प्रेम! मैं तो देखता ही रह गया और इस तरह मेरे मन की यह आशंका दूर हुई कि मुझ अकिंचन और अपरिचित को वे कैसे जानते हैं? तब वातावरण सहज हो चला तो उन्होंने ही मुझे यह भी याद दिलाया कि सन् 1992 में मैं जब विज्ञान भवन में दूरदर्शन की शैक्षिक सेवा और कामर्शियल सर्विस का हैड होकर बैठता था, वो मुझे तब से जानते हैं। यह बात मेरे लिए और चौंका देने वाली थी। तब मुझे याद आया कि विज्ञान भवन में उन दिनों और भी अनेक बड़े महत्वपूर्ण कार्यालय थे। पर वे सबकुछ बेहद गोपनीय और शांत वातावरण में चला करते थे। मसलन जैन जांच आयोग, अयोध्या जांच आयोग, चंद्रास्वामी जांच आयोग, जस्टिस कृष्णा मुखर्जी जांच आयोग और फिर मुझे याद आया, अरे हां, वहीं तो बैठते थे प्रो. कलाम भी, भारत सरकार के रक्षा सलाहकार के रूप में।
मुझे याद आया, अजीब सी हेयर स्टाइल वाले, दिनभर लिखने-पढ़ने में डूबे रहने वाले एक इंसान का चेहरा, जो आते-जाते कॉरिडोर में उन दिनों मुझे दिख जाया करता था। तब मैं भारत सरकार की सेवा में नया-नया आया था। ज्यादा वर्ष नहीं बीते थे। मन में उमंग, उत्साह और ऊर्जा से भरकर संस्थान की सेवा करने के स्वप्न सांसों में बसे थे। पता नहीं कब मेरी चाल-ढाल, मेरी आवाज, मेरे काम करने की गति प्रो. कलाम साहब को भा गई थी और कब उन्होंने मेरी पुस्तकें मंगवाकर देखी थीं। उन दिनों लगभग मेरी सारी ही कृतियां महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा के हाथों या तो उपराष्ट्रपति भवन में और बाद में राष्ट्रपति भवन में ही लोकार्पित होती रहती थीं।
खैर, उस दोपहर में महामहिम का सहज-सरल-स्निग्ध रूप जो प्रकट हुआ, विशेषकर बच्चों के साथ। मेरा छोटा बेटा दिव्यांश उनकी कुर्सी पर जा बैठा। मैंने उसे आंख तरेरकर दिखाई तो महामहिम ने मुझे रोका और उससे पूछा (अंग्रेजी में), क्या तुम भी राष्ट्रपति बनना चाहोगे? तपाक से 6 वर्षीय दिव्यांश ने उनसे कहा, अब भला मैं कैसे बनूं? आप बन तो गए हैं! फिर उनसे छेड़छाड़ करते हुए अपने हमउम्र बच्चों की तरह राष्ट्रपति भवन में लगी स्वयं प्रो. कलाम की एक बड़ी तस्वीर को देखकर दिव्यांश ने उनसे पूछा, क्या यह आपकी 'ओरिजिनल' तस्वीर है? बच्चे ने मानो शैतानी करने का मन बना रखा था, कहा, ये आपकी ओरिजिनल तस्वीर कैसे हो सकती है? ओरिजिनल तो आप हैं। बहुत देर तक बच्चों की तरह दोनों हंसते रहे। दिव्यांश ने, जिसे हम सब घर में 'रघु' कहते हैं, शैतानी की हद कर डाली, जब उसने उनके बालों से छेड़खानी शुरू की। क्या आप वाटिका तेल लगाते हैं? महामहिम चूंकि दूरदर्शन के विज्ञापनों से अनभिज्ञ थे, चौंककर पूछने लगे, ये वाटिका तेल क्या होता है, तब मुझे उन्हें बताना पड़ा।
अब बारी बड़े बेटे सूर्यांश की थी। उन्होंने उससे पूछा, तुम बड़े होकर क्या बनोगे? बगैर एक क्षण झिझके सूर्यांश ने कहा, मैं एक 'सिंगर' बनना चाहता हूं। 'गायक'। महामहिम ने उसे छेड़ते हुए कहा, सिंगर देश का क्या भला करते हैं? गाने से क्या देश की सेवा होती है? तब नन्हे सूर्यांश ने, जिसकी उम्र 10 बरस की हो गई थी, पलटकर बड़े बेबाक अंदाज में जवाब दिया, क्यों? देश की सेना जब लड़ने जाती है, तो क्या देशभक्ति के गाने गाते नहीं जाती है? क्या 'सिकंदर' की फौज में पोएट होमर गाते हुए नहीं जाता था। क्या हम सब 'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी' नहीं गाते हैं? राष्ट्रपतिजी ने उसके नन्हे ज्ञान पर अपनी आंखें फैलाईं और कहा, अच्छा, हिन्दी के लेखक और अंग्रेजी की लेक्चरर के बच्चे हो! और फिर सूर्यांश की दु:खती रग पर हाथ रखा, तो जरा फिर कोई देशभक्ति का गीत सुनाओ? अब शरमाने की बारी सूर्यांशजी की थी। खैर, ये सब तो वे बच्चों से मजाक कर रहे थे।
तब तक भोजन आ गया और भोजन में बच्चों के लिए छोटे-छोटे रसगुल्ले और रसमलाई भी थीं। तब दिव्यांशजी फिर बोले, आप तो इतने बड़े राष्ट्रपति और आपके रसगुल्ले इतने छोटे! महामहिमजी मुस्कुराते रह गए। भोजन के बाद उन्होंने मेरे साहित्य, मेरे जीवन, मेरे संघर्ष पर बात शुरू की। उन्होंने यह भी पूछ लिया कि पं. सूर्यनारायण व्यास जैसे ज्योतिषी के महान् विद्वान के घर यह क्रांति कैसे जन्मी? मैंने उन्हें बताया, जैसे 'आदि शंकराचार्य' के वंश में कॉमरेड ईएमएस नंबूदरीपाद जन्मे? परंपरा के घर में परिवर्तन का जन्म हो, यह आवश्यक है। फिर पं. व्यास के क्रांतिकारी अवदान, फिर ज्योतिष का मार्क्सवाद और विज्ञान से कोई बैर नहीं है। इस विषयों पर विस्तार से चर्चा की। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पंडित सूर्यनारायण व्यास ने सन् 1917 में बोल्शेविक क्रांति से अपने लेखन की शुरुआत की और फिर कैसे वे इतिहासकार, निबंधकार, पत्रकार, 'विक्रम' संपादक और एक क्रांतिकारी दृष्टा के रूप में भारत का भविष्य देखते थे और ये जानते थे कि देश चाहे राजनीतिक दृष्टि से आजाद 15 अगस्त 1947 को हो जाएगा, जिसकी वे पूर्व में भविष्यवाणी भी कर चुके थे और बाद में आजादी का मुहूर्त भी उन्हीं का निकाला हुआ था, लेकिन वे यह भी जानते थे कि हम मानसिक और सांस्कृतिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाएंगे। इसीलिए उन्होंने 'शेक्सपीयर-शेक्सपीयर' कहने वाले राजनेताओं के सामने सन् 1928 से कालिदास खड़ा कर उज्जयिनी में 'अ.भा. कालिदास समारोह' आरंभ कर दिया था, जो आज तक जारी है। हम बरसों गुलाम रहे हैं- शकों, हूणों, मुगलों और अंग्रेजों के। तब उन्होंने हम हारे-पिटे, लुटे-पिटे, आत्मविश्वास से हीन पीढ़ी को इतिहास से 'विक्रम' नामक पराक्रमी चरित्र दिया और उसके नाम पर मंदिरों और मठों के इस देश में मंदिर और मठ न खुलवाकर 'विक्रम विश्वविद्यालय', 'विक्रम कीर्ति मंदिर', 'विक्रम स्मृति ग्रंथ', 'कालिदास अकादमी' बनवाई।
प्रो. कलाम मुग्ध और अवाक् होकर ये सब सुनते रहे। फिर उन्होंने पं. व्यास के समग्र साहित्य को देखने-पढ़ने की इच्छा जाहिर की। मैंने उन्हें पंडितजी के जीवन पर बनी फिल्म 'स्वाभिमान के सूर्य' के तीनों खंड भेंट किए जिसे उन्होंने तत्काल अपने कम्प्यूटर पर डाउनलोड कर लिया। उन्हें विश्वविद्यालय और कालिदास समारोह के इतिहास से परिचित करवाया। उन्हें बड़ा आनंद आया। तब उन्होंने चौंककर पूछा, आप दूरदर्शन में क्या कर रहे हो? मैंने विनम्रता से कहा- 'कबीर की तरह दोहे लिखने के लिए अपनी चदरिया वहां बुनता हूं।' हिन्दी में मुक्त लेखक को जीने का अधिकार नहीं हैं। 14 बरस से ज्यादा मैंने फ्रीलांसिंग की और 54 पुस्तकें लिखने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि प्रकाशक आपको साइकल खरीदने के लायक भी पैसा नहीं देते। खैर, जीवन में और साहित्य में आपकी तरह मैं भी करप्शन से लड़ता रहा हूं।
तब तक पत्नी ने आंख दिखाई, पैर पर पैर मारा, इशारे में कहा, राष्ट्रपति भवन में क्यों 'करप्शन' की बातें? राष्ट्रपति को क्यों बताते हो?
मैंने वहीं जोर से कहा, जब तुम मंदिर जाती हो तो अपने भवगान से सब कह देती हो, मैं अपने राष्ट्र के सर्वोच्च मंदिर में खड़ा हूं और अगर राष्ट्रपति को न बताऊंगा कि राष्ट्र में क्या हो रहा है, तो किससे कहूंगा?
राष्ट्रपति ने अपनी कुछ पु्स्तकें मुझे भेंट करनी चाहीं, जो हिन्दी में थीं। एक तो मैंने उठा ली और जाने-अनजाने उनकी 'तमिल' में लिखी एक किताब भी मैंने उठा ली। शायद मन यह था कि अगर यह पुस्तक हिन्दी में न आई हो तो इसके अनुवाद की व्यवस्था मैं कर पाऊं।
राष्ट्रपति ने पूछा, क्या आप तमिल भी जानते हैं?
मैंने कहा, बिलकुल नहीं, पर सीखना चाहता हूं।
उन्होंने पूछा, क्यों?
मैंने कहा, वहां से आई हुई 'कामवाली बाई' से लेकर नर्स तक यहां आकर हिन्दी सीख जाती हैं इसलिए कि वे 'मजूर' बनकर आती हैं। हम वहां जाकर भी उनकी भाषा कभी नहीं सीख पाते, क्योंकि हम हुजूर बनकर जाते हैं। तमिल एक जीवित और जीवंत भाषा है। उसमें प्रवाह है।
फिर मैंने संत तिरुवल्लुवर की एक उक्ति उन्हें सुनाई जिसका आशय कुछ-कुछ वाल्मीकि रामायण की पंक्ति 'जननी जन्मभूमिश्च: स्वर्गादपि गरियसी' जैसा ही था। वे इस भाव से बड़े प्रसन्न हो गए और जब उन्हें पता लगा कि अंग्रेजी की लेक्चरर मेरी पत्नी जन्मना गुजराती हैं तो वे और आनंदित हुए। अचानक उन्होंने पूछा, क्या तुम मुझे हिन्दी पढ़ा सकोगे? मैं तो अवाक् उन्हें देखता ही रह गया! ना कहने की हिम्मत ही नहीं हो सकती थी। 'ये हमारा सौभाग्य होगा और अगर मैं आपके किसी काम आ सकूं तो ये एक तरह से राष्ट्रसेवा ही होगी।' दोपहर से लगभग सांझ ढलने को आ गई थी। क्रांति से लेकर खगोल, धर्म से लेकर अध्यात्म, ज्योतिष से लेकर मार्क्सवाद, दर्शन से लेकर दूरदर्शन तक लगभग सभी विषयों पर खूब चर्चा हुई। इसी दरम्यान वे बच्चों से एक शपथ भी ले चुके थे, हर साल दो बच्चों को पढ़ाओगे और पांच पेड़ भी लगाओगे।
कहने को, लिखने को अभी बाद के वर्षों का बहुत कुछ संस्मरण हिस्सा बाकी है। उनके जीवन पर, चिंतन पर; परंतु यह पारिवारिक क्षणभर दे मैं विदा लूं, उससे पहले- एक सप्ताह बाद, मैं जब कार्यालय से घर आया तो कर्जन रोड के अपने सरकारी 'कबूतरखाने', दड़बों जैसे एक कमरे के मकान के बाहर मैंने देखा कि बड़ा बेटा सूर्यांश पांच-दस गरीब काम वाली बाइयों के बच्चों को दरी बिछाकर पढ़ा रहा था और छोटा बेटा दिव्यांश घर के बाहर एक तुलसी का पौधा लगा रहा था। पूछने पर कि ये क्या हो रहा है? क्या कर रहे हो? दोनों ने लगभग एक स्वर में जवाब दिया, 'कलाम चाचा का काम कर रहे हैं।'