स्मृति शेष : 20 फरवरी, डॉ. नामवर सिंह और मैं..

पंकज सुबीर  
20 फरवरी 2010 का दिन था, जब मैं अपने ऑफिस में बैठा कोई काम कर रहा था अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी मैंने मोबाइल कॉल को जैसे ही रिसीव किया, वैसे ही वहां से आवाज़ आई "पंकज सुबीर बोल रहे हैं?" मैंने कहा कि "हां बोल रहा हूं", तो उस तरफ़ से आवाज़ आई "पंकज सुबीर बधाई हो! मैं नामवर सिंह बोल रहा हूं आपके उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' इस वर्ष 'ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार' दिया जा रहा है।"
 
 एक लेखक, एक नए लेखक के लिए, एक छोटे क़स्बे के लेखक के लिए सबसे पहले तो यह सूचना ऐसी थी, जिसको सुनकर उसे जड़वत हो ही जाना था। और सबसे बड़ी बात यह थी कि यह सूचना दे कौन रहा था? स्वयं डॉक्टर नामवर सिंह जी। मैं कुछ देर के लिए जैसे स्तब्ध सा हो गया। वे उधर से बोलते रहे और मैं कोई उत्तर नहीं दे पा रहा था। शायद भावुक भी हो गया था। फिर मैंने थोड़ी देर बाद सहज होकर उनसे बात की, उनका शुक्रिया अदा किया। क्योंकि वह 'ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार 2009' के लिए बनाई गई चयन समिति के अध्यक्ष थे, इसीलिए उन्होंने स्वयं फ़ोन कर मुझे इस बात की सूचना दी थी। 
 
ज़िंदगी का पहला बड़ा पुरस्कार और उसकी सूचना स्वयं डॉक्टर नामवर सिंह जी से प्राप्त होना, तमाम ज़िंदगी भूल नहीं सकता। उसके बाद दिसंबर के महीने में पुस्तक मेले में डॉक्टर नामवर सिंह जी के हाथों से ही नवलेखन पुरस्कार को प्राप्त करना और कुछ माह बाद उसी उपन्यास पर पाखी पत्रिका द्वारा स्थापित 'स्वर्गीय श्री जोशी स्मृति शब्द साधक सम्मान' फिर उन्हीं के हाथों से प्राप्त करना अब जैसे कोई स्वप्न सा लग रहा है।
 
एक और घटना 4 वर्ष पूर्व की है और इसी 20 फरवरी के दिन की है। मैं "नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2015" में लेखक मंच के किसी कार्यक्रम में बैठा था। व्यंग्य यात्रा के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय का कोई कार्यक्रम था और वहाँ मुझे इस बात का लालच हुआ कि मैं अपना नया कहानी संग्रह "कसाब.गांधी एट यरवदा डॉट इन" डॉ. नामवर सिंह को भेंट करूं। कार्यक्रम के पश्चात मैं सकुचाते हुए अपनी किताब लेकर उनकी तरफ़ बढ़ा। 
 
मुझे पहचान कर वे मुस्कुराए। मैंने धीरे से किताब बढ़ाई । उन्होंने किताब हाथ में ली खोली और फिर मुझे डांटते हुए बोले "लेखक हो, इतना समझ में आना चाहिए कि किताब पर हस्ताक्षर करके और उस दिन की तारीख लिख कर ही किताब दी जाती है।" मैं मंच पर उनके ही पास की कुर्सी पर बैठ गया। पेन मेरे पास नहीं था, तो उन्होंने अपनी जेब से निकाल कर दिया और फिर हाथ का इशारा करके किताब के पहले पन्ने पर बताया -"यहां पर लिखो डॉक्टर नामवर सिंह को सप्रेम भेंट और नीचे अपने हस्ताक्षर करो, आज की तारीख़ डालो और स्थान का नाम लिखो।" इतना वरिष्ठ साहित्यकार अपने से बहुत छोटे लेखक को जैसे उंगली पकड़कर सिखा रहा था, अपनी दुनिया के लोक व्यवहार के नियम, क़ायदे। 
 
और आज 20 फरवरी 2019 को जब सुबह कंप्यूटर पर बैठा और इस बात की हल्की सी सूचना कहीं से मिली कि शायद डॉक्टर नामवर सिंह जी अब नहीं रहे हैं, तो सबसे पहले फेसबुक को खोल कर देखा। फेसबुक पर जैसे ही मेरी टाइमलाइन सामने आई, तो वहां फेसबुक की सूचना दर्ज थी "पंकज सुबीर 4 वर्ष पूर्व की अपनी यादों को आज फेसबुक पर साझा कीजिए" और उस साझा की जाने वाली पोस्ट में डॉक्टर नामवर सिंह जी को विश्व पुस्तक मेले में किताब भेंट करने वाली ही सारी तस्वीर लगी थीं, जहां वे हाथ की उंगली से इशारा करते हुए मुझे हस्ताक्षर करना और तारीख लिखना सिखा रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा हूं की 20 फरवरी उनके और मेरे बीच में यह तारीख़, ऐसी क्यों जुड़ी हुई थी। अब वे नहीं हैं, मेरी विनम्र श्रद्धांजलि और नमन। वे हिन्दी साहित्य के, हिंदी साहित्य में आलोचना के शिखर पुरुष थे। उनके जाने से एक बहुत बड़ा शून्य हिन्दी साहित्य में और आलोचना में पैदा हो गया है, जिसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकेगी।
 
नमन हिन्दी साहित्य के शिखर पुरुष को।

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