परमेश्‍वर की ओर दादी की दिव्‍य यात्रा

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‘यदि हम स्‍वयं आंतरिक रूप से रिक्‍त होंगे तो अपनी रिक्‍तता को बाहरी तत्‍वों से भरने के लिए हमेशा दूसरों से कुछ लेने का प्रयास करेंगे, यदि हमार अंतर्मन प्‍यार, सौहार्द और मैत्री भाव से भरा रहेगा तो हम जगत में प्‍यार और मैत्री को बाँटते चलेंगे।‘

राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि ने अपना पूरा जीवन इस सिद्धांत को चरितार्थ करते हुए ‍िबताया। अपने जीवन में दादी प्रकाशमणि पूरे विश्‍व में प्‍यार बाँटती रहीं

महज चौदह वर्ष की उम्र में उन्‍होंने अपना जीवन आध्‍यात्मिक मार्ग से मानवता की सेवा में समर्पित कर दिया। सन् 1937 में जब ब्रह्मा बाबा ने इस संस्‍था का गठन किया, तब उसके आठ ट्रस्टियों में दादी प्रकाशमणि को भी शामिल किया गया।

1952 में उन्‍हें मुंबई स्थित प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍वविद्यालय की कमान सौपी गई। इस जिम्‍मेदारी को उन्‍होंने पूरी निष्‍ठा के साथ निभाया। इसके बाद उन्‍होंने महाराष्‍ट्र झोन के प्रमुख के रूप में कार्यभार संभाला।

सन् 1969 में दादी प्रकाशमणि ने प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍वविद्यालय की प्रमुख प्रशासिका का उत्‍तरदायित्‍व ग्रहण किया। उनके कार्यकाल में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍वविद्यालय की ख्‍याति विश्‍वभर में फैली। हजारों लोग आध्‍यात्मिक शांति की तलाश में संस्‍था के सान्निध्‍य में आए। संस्‍था प्रमुख के रूप में उन्‍होंने विश्‍व के कई देशों की यात्रा की और हर जगह पर प्‍यार, शांति, सद्‍भाव और मैत्री का संदेश दिया।

विश्‍व शांति और मानवता की भलाई के लिए उन्‍होंने कई अंतरराष्‍ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर कार्य किए। विश्‍व शांति की दिशा में उनके कार्यों को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र ने सन् 1984 में उन्‍हें ‘शांति दूत’ पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया।

सन् 1993 में शिकागो में आयोजित धर्म संसद में उन्‍हें अध्‍यक्ष नियुक्‍त किया गया। इस धर्म संसद में जब दादी प्रकाशमणि ने अपना संबोधन दिया तो विश्‍वभर के विद्वान उनकी मधुर वाणी और ज्ञान से प्रभावित हुए।

दादी प्रकाशमणि के कार्यकाल में विश्‍व में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍वविद्यालय का बहुत विस्‍तार हुआ। उनके कार्यकाल में विश्‍वभर में इस संस्‍था के 3,200 नए केंद्रों की स्‍थापना हुई। दादी प्रकाशमणि ने स्‍वयं राजयोग की शिक्षा देने वाले 5000 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया।

उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी वे पूरी लगन से अपने कार्य में जुटी रहीं। जब कभी कोई उनसे पूछता कि आप इतना काम कैसे कर लेती हैं? तब वे एक मधुर मुस्‍कान के साथ यह जवाब देती कि अपने परिवार की तरह संभालती हूँ, इस संस्‍था के मूल में प्रेमभाव है और इसी प्रेमभाव और विश्‍वास के साथ इसका पोषण किया जा रहा है इसलिए इसका विस्‍तार हो रहा है।

राजयोगिनी दादी प्रकाशमणिजी ने यह प्रमाणित कर दिया कि औरतों द्वारा संचालित आध्‍यात्मिक संगठन प्रकाश स्‍तंभ बनकर, लोगों के मन से अँधेरे को हटाकर उन्‍हें विश्‍व में शांति और सुख प्राप्‍त करने का रास्‍ता दिखा सकता है।

दादी प्रकाशमणि ने वास्‍तव में ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाली मणि बनकर अपने नाम को चरितार्थ किया।

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