कहते हैं कि संत दादू को जन्म के तत्काल बाद किसी अज्ञात कारण से इनकी माता ने लकड़ी की एक पेटी में उनको बंद कर साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। कहते हैं कि लोदीराम नागर नामक एक ब्राह्मण ने उस पेटी को देखा, तो उसे खोलकर बालक को अपने घर ले आया। दादू दो पुत्र गरीबदास और मिस्कीनदास तथा दो पुत्रियां- नानीबाई तथा माताबाई थीं। दादू मुगल बादशाह के समकालीन थे।
दादू दयाल हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कवि थे। इनके उपदेश मुख्यतः काव्य सूक्तियों और ईश्वर भजन के रूप में संकलित हैं। कुल मिलाकर 5,000 छंदों के संग्रह को 'पंचवाणी' कहा जाता है। इन छंदों के माध्यम से उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। इसी कारण उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं।
वे सिर्फ राम को मानते हैं और उन्हीं का नाम जपते रहते हैं। इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की थी जिसे 'दादूपंथ' कहते हैं। कालांतर में दादू पंथ के 5 प्रमुख उपसम्प्रदाय निर्मित हुए- खालसा, विरक्त तपस्वी, उतराधें या स्थानधारी खाकी नागा।
दादू दयाल का अधिकांश जीवन राजपूताना में व्यतीत किया। चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार अठारह वर्ष की अवस्था तक अहमदाबाद में रहे, छह वर्ष तक मध्यप्रदेश में घूमते रहे और बाद में सांभर (राजस्थान) में आकर बस गए।