संत सूरदासजी का जन्म मथुरा के रुनकता नाम के गांव में हुआ। सुरदासजी जन्म से ही अंधे थे और वे श्रीकृष्ण के अनन्न भक्त थे। 17 May 2021 को सूरदासजी की जयंती मनाई जाएगी। इसी संदर्भ में आओ जानते हैं उनके संबंध में अनसुनी रोचक बातें।
1. कहते हैं कि द्वापर युग में भी सूरदासजी का जन्म हुआ था। तब भी वे अंधे थे और वे प्रभु श्रीहरि की भक्ति में रमकर भजन गाया करते थे। एक बार वे गाते हुए ऋषि गर्ग के आश्रम पहुंच और उन्होंने पूछा कि हे मुनिवर! मैंने सुना है कि मेरे प्रभु ने श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया है। मेरे अंतरमन की आंखें उन्हें देख रही है। क्या मुझे प्रभु के चरणों में मुक्ति मिलेगी।
यह सुनकर गर्ग मुनि आंखें बंद करके भविष्य में झांकते हैं। फिर वे आंखें खोलकर कहते हैं कि अभी नहीं कविराज। यह सुनकर कविराज निराश हो जाते हैं। फिर आगे मुनि कहते हैं कि अभी तो आपकी आवश्यकता कलयुग में पड़ेगी। यह सुनकर वह अंधा गायक कहता है कलयुग में? मुनि कहते हैं हां, कलयुग में करोड़ों प्राणियों को आपको अपने भक्ति रस में डूबोना है। जब कलयुग में भक्ति का हास होगा तो आपको अपनी दिव्य दृष्टि से प्रभु की लीला दिखाई देने लगेगी और आप उसका वर्णन अपनी वाणी से करेंगे। उस समय भी आपको नैनहिन शरीर की प्राप्त ही होगी। उसी जन्म में आपको मुक्ति भी मिलेगी। यह सुनकर कविराज प्रसन्न होकर वहां से विदा ले लेते हैं।
2. वल्लभाचार्य जब आगरा-मथुरा रोड पर यमुना के किनारे-किनारे वृंदावन की ओर आ रहे थे तभी उन्हें एक अंधा दिखाई पड़ा जो बिलख रहा था। वल्लभ ने कहा तुम रिरिया क्यों रहे हो? कृष्ण लीला का गायन क्यों नहीं करते? सूरदास ने कहा- मैं अंधा मैं क्या जानूं लीला क्या होती है? तब वल्लभ ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। विवरण मिलता है कि पांच हजार वर्ष पूर्व के ब्रज में चली श्रीकृष्ण की सभी लीला कथाएं सूरदास की बंद आंखों के आकाश पर तैर गईं। अब वल्लभ उन्हें वृंदावन ले लाए और श्रीनाथ मंदिर में होने वाली आरती के क्षणों में हर दिन एक नया पद रचकर गाने का सुझाव दिया।
3. वल्लभ सम्प्रदाय में, जिससे सूरदास सम्बद्ध रहे हैं, यह माना जाता है कि वे अपने गुरु श्री वल्लभाचार्य से केवल दस दिन छोटे थे। गऊघाट में गुरुदीक्षा प्राप्त करने के पश्चात सूरदास ने 'भागवत' के आधार पर कृष्ण की लीलाओं का गायन करना प्रारंभ कर दिया। इससे पूर्व वे केवल दैन्य भाव से विनय के पद रचा करते थे। उनके पदों की संख्या 'सहस्राधिक' कही जाती है जिनका संग्रहीत रूप 'सूरसागर' के नाम से विख्यात है। वल्लभाचार्यजी के पुत्र श्री विट्ठलनाथजी ने सूरदास को आठ कवियों के समुच्चय 'अष्टछाप' में स्थान दिया था और वे उसके सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध हुए। सूरदास रचित पांच ग्रंथ माने जाते हैं। इनमें 'सूरसागर' ही सर्वप्रधान और श्रेष्ठ है।
4. कहा जाता है कि वे जन्मांध थे किन्तु उनकी कविता में प्रकृति तथा दृश्य जगत की अन्य वस्तुओं का इतना सूक्ष्म और अनुभवपूर्ण चित्रण मिलता है कि उनके जन्मांध होने पर विश्वास नहीं होता। पुष्टिमार्ग की उपासना और सेवा-प्रणाली का अनुसरण करते हुए सूरदास ने जीवनपर्यंत पद-रचना की। नरसी, मीरां, विद्यापति, चंडीदास आदि भारतीय साहित्य के अनेक कवियों ने पद-रचना की परंतु गीतिकाव्य में सूरदास का स्थान सर्वोच्च कहा जा सकता है।
5. सूर की काव्य प्रतिभा ने तत्कालीन शासक अकबर को भी आकृष्ट किया था और उसने उनसे आग्रहपूर्वक भेंट की थी जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है। इसी प्रकार तुलसीदास से भी सूरदास की भेंट का वर्णन प्राप्त होता है जो सर्वथा संभव है।
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