भक्ति प्रेम की मधुमती भूमिका है। प्रेम का तत्व या सारांश ही भक्ति की संज्ञा को प्राप्त हो जाता है। प्रेम के अनेक रूप हैं। जैसे समान वय में एक-दूसरे के प्रति तो रामात्मक भाव उदय होते हैं। उन्हें स्नेह कहा जाता है। छोटे लोग जब बड़ों से प्रेम करते हैं तो श्रद्धा बन जाता है। अपने इष्ट या परमात्मा के प्रति प्रेम की भावना भक्ति कहलाती है।
बड़ों का छोटों के प्रति प्रेम कृपा, अनुकंपा, दया आदि नामों से पुकारा जाता है। माता-पिता पुत्रों से जो प्रेम करते हैं उसको वात्सल्य कहा जाता है। भक्ति भी प्रेम ही है। हमारे भारतीय साहित्य में भक्ति संबंधी सामग्री पर्याप्त मात्रा में मिलती है। नारद भक्ति सूत्र में नवधा भक्ति का उल्लेख है और उसकी व्याख्या भी -
श्रवणं चरित्र या लीलाओं को सुनकर उनके आधार पर कीर्तन करना। पूजा करना और सेवा भक्ति में डूब जाना। स्मरण करना प्रभू की लीलाओं को सेवा वंदना-नमस्कार करके स्वयं को प्रभु के चरणों का दास बन जाना। सखा भाव की भक्ति को आठवें स्थान पर रखा गया है। सुदामा और कृष्ण की भक्ति सख्यभाव की थी। गीता में ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग की मार्मिक व्याख्या की गई है।
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भक्ति शब्द की रूप रचना भी उसके गहन और व्यापक स्वरूप को प्रकट करती है। भज्-सेवायाम् धातु से क्तिन् प्रत्यय होकर भक्ति शब्द बना है। मूल अर्थ है सेवा, सेवा का संबंध कर्म से है। मन में प्रेमाभक्ति हो तो कर्म में सेवाभक्ति की भावना स्वयं जाग जाएगी।
मन प्रभु के नाम को जपता है तो तन सेवा भक्ति, कर्म में रत हो जाता है। चिंतन, मनन, भजन में सेवा नहीं रह सकती। सेवा का संबंध उन कर्मों से है जो अपने प्रिय प्रभु के लिए किए जाते हैं। कर्म करो और भगवान को अर्पित कर दो, अर्थात् प्रत्येक कार्य को करते हुए मन में भावना बननी चाहिए कि मैं जो कर रहा हूं वह सब मेरे भगवान की सेवा भक्ति के निमित्त है।
सेवा संबंधी प्रत्येक कर्म को भगवान को समर्पित करने से प्राणी अहंकार से मुक्त हो जाता है। जो कुछ है उसका है, जो उसका है उसको समर्पित करो। गीता के नवम् अध्याय के अंतर्गत चौतीसवें श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं-
मनन, भजन, यजन-पूजन, नमन इन पांच क्रियाओं के माध्यम से मानव का जीवन प्रभु से जुड़ जाता है। भगवान कहते हैं इस प्रकार मेरी शरण में आकर मेरे से जुड़ जाएगा और मुझको ही प्राप्त हो जाएगा अर्थात् मेरे में लीन हो जाएगा। उपयुक्त समस्त क्रिया-प्रक्रिया और चिंतन मनन आत्मा को परमात्मा में लीन करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
अठाहरवें अध्याय में पैंसठवे श्लोक में यही बात दोहराई गई है केवल चतुर्थ चरण परिवर्तित है-
गीता में योग शब्द का प्रचुर प्रयोग इसी जुड़ने की भावना का द्योतक है। प्रति क्षण कार्यरत रहकर, अपना सामान्य निर्धारित जीवन जीकर भी मनुष्य परमात्मा का सान्निध्य पा लेता है।