परमात्मा न किसी को सुखी करता है न किसी को दुखी। सुख-दुःख स्वयं के अच्छे-बुरे कर्मों का परिणाम हैं। जब आत्मा सत्कर्म में प्रवृत्त होती है तो सुख मिलता है और जब अनैतिक और पाप के कार्यों में प्रवृत्त हो जाती है तो वह दुःख रूप होती है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू हैं। जीवन में दुःख में से सुख निकालने की कला सीखनी चाहिए। जैसे कमल कीचड़ में पैदा होता है वैसे ही सुख भी दुःख के कीचड़ में पैदा होता है।
उक्त प्रेरक विचार श्रमणमुनिजी ने धर्मसभा में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि व्यक्ति कर्म सिद्घांत को मानता है, फिर भी बुरे कर्म करता है। हम प्रत्येक घटना को कर्म से जोड़ते हैं जबकि कर्म के परिणाम में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का निमित्त कार्य करता है।
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उन्होंने कहा एक हाथ से दें और हजार हाथों से लें। यह सिद्घांत जिसने अपना लिया वह कभी कष्ट नहीं पाता। यह दान भी हो सकता है, परम पुरुषार्थ भी हो सकता है। उत्सर्ग का भाव श्रेष्ठतम होता है। जो देव होता है वह सर्वप्रथम दूसरों को खिलाता है फिर स्वयं खाता है।
पर्युषण पर्व के महाअवसर पर मुनिश्री ने कहा कि सामायिक व्रत, समता की साधना का अमोघ अस्त्र है। सामायिक कालमान पापकारी प्रवृत्तियों का निषेध है। यह बाहरी दुनिया से विमुख होकर आंतरिक शक्ति जागरण का मार्ग है। यह साधना राग, द्वेष, मान, माया, लोभ पर नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त करती है।
संयम, संतुलन और सहिष्णुता की वृद्घि में सामायिक की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस अवसर पर साध्वी सरोजकुमारी ने भगवान महावीर के सत्रहवें भव का मार्मिक विश्लेषण किया और कहा कि जीवन में अनेकांत दृष्टिकोण आना चाहिए। आगम वाणी में वर्णित जीव-सजीव की चर्चा की गई।