जीवन के लिए त्याग जरूरी

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आर्यिका रत्न स्वस्ति भूषण माता जी ने अपने प्रवचनों के दौरान कहा कि मरने के बाद कुछ भी साथ में नहीं जाता है। यदि जाता तो इस संसार में कोई वस्तु नहीं बचती। इसलिए किसी को धन देकर उस पर अहंकार नहीं करें। क्योंकि यह सब वस्तुएँ हमारी नहीं है। सबकुछ यहीं रह जाएगा।

उन्होंने कहा कि तन में पहने कपड़े, सोना, चाँदी सब कुछ यहीं आकर मिला है। शरीर माता पिता से मिला है। विचार कीजिए कि हमारा है क्या। जिसे आप अपना कहते हैं वह सारी वस्तुएँ हमारे उपयोग के लिए हैं। साथ ले जाने नहीं, किन्तु उनके प्रति हम इतना मोहित हो जाते हैं कि अपनी समझने लगते हैं। समझना और होना दोनों में बहुत अंतर है। हम उन्हें अपना समझते हैं, वे हमारी होती नहीं है।

यदि संसार की वस्तु मनुष्य के मृत्यु के बाद में ले जाने की व्यवस्था होती तो आज आपके लिए एक इंच भूमि भी नहीं बचती। मनुष्य मोह पाश में डूबकर जानबूझ कर अँधा बना है। भिखारी भी अपने भाग्य का ले जाता है। साधु-संतों का आहार भी हो जाता है। परिवार वाले तो अधिकार से खाते हैं। अतः आप कमाने के लिए कारण मात्र हो। कहा भी गया है दाने दाने पे लिखा है, खाने वाले का नाम।

त्याग के बिना कोई भी धर्म जीवित नहीं रह सकता। धर्म तथा आत्मा को जीवित रखने के लिए त्याग नितांत जरूरी है। समस्त जड़ वस्तु का त्याग करने वाला ही मुक्ति को प्राप्त कर पाता है। उन्होंने कहा कि ममत्व की शिलाओं को हटाने से ही शांति का झरना फूटता है।

इसलिए हमें वस्तुओं का संग्रह करने के अपेक्षा अपना ध्यान धर्म और दान में लगाना चाहिए। यही पर किया गया दान-धर्म हमें मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जाएगा।

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