इंदौर। 'तकनीकी दृष्टि से गुजरे 17 सालों के फिल्मों के सफर पर नजर डालें तो पाते हैं कि उदारीकरण का प्रभाव फिल्मों पर खासा पड़ा है। आज सिनेमा तकनीकी रूप से ज्यादा समृद्ध है। अब हिंदुस्तानी सिनेमा सही मायनों में वैश्विक हो चुका है। दुनिया के 137 देशों में इसे बड़े चाव से देखा जा रहा है।' यह बात डॉ. अनिल चौबे ने कही। वे मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा सुप्रतिष्ठित फिल्म विश्लेषक एवं संपादक स्व. श्रीराम ताम्रकर की स्मृति में आयोजित दो दिवसीय गोष्ठी में बोल रहे थे।
'सिनेमा : नई सदी और उसके दो दशक' विषय पर डॉ. चौबे ने कहा कि गुजरी सदी के अंतिम तीन दशक 70, 60, 90 की तुलना में नई सदी के इन 17 सालों में कहीं बेहतर काम देखने को मिला है। इन सालों में हिंदुस्तानी सिनेमा ग्लोबल हो चुका है। भारतीय फिल्में देश में जितनी कमाई करती हैं, उतनी ही रिकॉर्ड कमाई विदेशों में कर रही हैं। इसके ताजे उदाहरण आमिर खान की फिल्म 'पीके' और 'दंगल' हैं।
उन्होंने कहा कि अब ढाई घंटे के बजाए एक से डेढ़ घंटे की दर्शकों को बांधे रखने वाली फिल्में भी पसंद की जा रही हैं। 60, 70, 80 के दशकों का फार्मूला अब नहीं दिखता। कामयाबी के लिए अब कला और तकनीक के बीच तालमेल दिखने लगा है। मेरे हिसाब से इन 15 सालों में ज्यादा अच्छा काम देखने को मिला है।
डॉ. चौबे ने कहा कि अब फिल्मों में हीरो, हीरोइन और विलेन का त्रिकोण गायब है। कथानक नए किरदारों के साथ सामने आए हैं। भारतीय सिनेमा में जो आधुनिक मिजाज आया है, वो देशी कम ग्लोबल अधिक है। स्त्री चरित्र को उकेरने में ज्यादा खुलापन और आजादी के साथ बराबरी की बात प्रत्यक्ष रूप से अब फिल्मों में दिखाई देती है।
उन्होंने यह भी कहा कि 'स्टोरियो टाइप' का चरित्र गायब है। फिल्मों में नायक 'महानायक' नहीं है। फिल्मों की कहानियां अब विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत हो रही हैं। पानसिंह तोमर, बर्फी के साथ वांटेट और दबंग जैसी फिल्में भी पसंद की गई हैं।
अब प्रोजेक्टर फिल्में नहीं चल रही हैं, बल्कि आसमान से सैटेलाइट के जरिए उतर रही हैं। पुरानी फिल्मों के रीमैक भी बन रहे हैं। यही नहीं, प्रयोगवादी सिनेमा की भी वापसी हुई है। कुल मिलाकर 21वीं सदी का सिनेमा भारत की बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और उसके विकास को प्रतिबिंबित करता है। (वेबदुनिया न्यूज)