फांसी के दिन भी बेफिक्री से अखबार पलटते रहे सरदार भगतसिंह
सहारनपुर। अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को अपने अदम्य साहस से झकझोर देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह को जेल प्रशासन ने फांसी देने से पहले वाहे गुरु का ध्यान करने की सलाह दी तो उनके शब्द थे- 'अब आखिरी वक्त भगवान को क्या याद करना? जिंदगीभर तो मैं नास्तिक रहा, अब भगवान को याद करूंगा तो लोग कहेंगे मैं बुजदिल और बेईमान था और आखिरी वक्त मौत को सामने देखकर मेरे पैर लड़खड़ाने लगे।'
अंग्रेजों की चूलें हिला देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जन्म पाकिस्तान के ग्राम चक 105, जिला लायलपुर में 28 सितंबर 1907 को हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था। सिर्फ 12 साल की उम्र में जलियांवाला बाग हत्याकांड के साक्षी रहे भगत सिंह की सोच पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए 'नौजवान भारत सभा' की स्थापना कर डाली।
भगत सिंह के भतीजे किरणजीत ने बातचीत में कहा कि शहीद के साहसी क्रांतिकारी व्यक्तित्व को एक तरफ रखकर देखें तो पता चलता है कि वे एक सरस, सजीव, मसखरे, सहृदय, संतुलित और उदार मानव थे।
उन्होंने बताया कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह (तायाजी) की निश्चयों के प्रति ऐसी ही अटलता थी, जैसी धार्मिक दृष्टि के मनुष्यों में धर्म के प्रति होती है, जो निश्चय हो गया उसमें न वे ढील करते थे, न ढील सहते थे। कोई ढील करे, तो उन्हें गुस्सा आ जाता था। बहुत कुछ कहते-कहते सुनते थे।
वे किसी को ठेस नहीं पहुंचाते थे। यदि उन्हें यह महसूस होता कि उनकी बात से किसी को ठेस लगी है, तो वे हंसी-खुशी का वातावरण बनाकर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे। इससे काम न चले, तो गले में हाथ डालकर उसे प्रसन्न करने की कोशिश करते थे।
जेल के अफसर उनकी देख-रेख करते थे। लाहौर जेल के बड़े जेलर खान बहादुर मुहम्मद अकबर कहा करते थे कि उन्होंने अपने समूचे जीवन में भगत सिंह जैसा श्रेष्ठ मनुष्य नहीं देखा। शहीद-ए-आजम उदासी के दुश्मन थे। उदासी उनके पास फटक ही नहीं पाती थी। साहस उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था।
1925 में शहीद-ए-आजम दिल्ली के 'वीर अर्जुन' में संपादन विभाग का काम भी करते थे। दीनानाथ सिद्धांतालंकार के साथ वे एक चौबारे में रहते थे। उन्हीं के शब्दों में- 'वे मितभाषी और अध्ययनशील थे। खाली समय में और रात को प्राय: राजनीतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक पुस्तकें पढ़ते थे। समाचार तैयारी करने में चुस्त थे। उनका जीवन अत्यंत सादा और संयमपूर्ण था।'
दीनानाथ सिद्धांतालंकार के ही शब्दों में रात में वे अक्सर चौबारे की छत पर अकेले बैठे रोते थे। जब मैंने रोने का कारण पूछा, तो बहुत देर चुप रहने के बाद वे बोले कि मातृभूमि की इस दुर्दशा को देखकर मेरा दिल छलनी हो रहा है। एक ओर विदेशियों के अत्याचार हैं, दूसरी और भाई, भाई का गला काटने को तैयार है। इस हालत में मातृभूमि के ये बंधन कैसे कटेंगे?
आजादी के इस मतवाले ने पहले लाहौर में सांडर्स-वध और उसके बाद दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में चन्द्रशेखर आजाद और पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलंदी दी।
शहीद भगत सिंह ने इन सभी कार्यों के लिए वीर सावरकर के क्रांतिदल 'अभिनव भारत' की भी सहायता ली और इसी दल से बम बनाने के गुर सीखे। वीर स्वतंत्रता सेनानी ने अपने दो अन्य साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया जिसने अंग्रेजों के दिल में भगत सिंह के नाम का खौफ पैदा कर दिया।
भगत सिंह को पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसंद नहीं आती थी। 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में पब्लिक सैफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल पेश हुआ। अंग्रेजी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शन के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फोड़कर अपनी बात सरकार के सामने रखी। दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन भारत के निडर पुत्रों ने हंसते-हंसते आत्मसमर्पण कर दिया।
देश की आजादी के लिए सब कुछ कुर्बान कर देने की चाहत ने भगत सिंह को इस कदर निडर बना दिया था कि उन्हें मौत का तनिक भी खौफ नहीं था। फांसी की सजा सुनाए जाने पर भी वे बेहद सामान्य थे। फांसी के दिन भी वे अखबार पलटते रहे और साथियों के साथ मजाक करते रहे।
23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह को सुखदेव और राजगुरु के साथ लाहौर षड्यंत्र के आरोप में अंग्रेजी सरकार ने फांसी पर लटका दिया। यह माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, मगर जनाक्रोश से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। शहीद भगत सिंह ने 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन की आयु में ही हंसते-हंसते संसार से विदा ली।
शहीद-ए-आजम के भतीजे किरणजीत सिंह ने बातचीत में उस पत्र का जिक्र किया जिसे भगत सिंह ने अपने छोटे भाई और उनके पिता कुलतार सिंह को लिखा था- 'भोर के प्रकाश में भाग्य की किरण को कौन रोक सकता है? यदि समस्त संसार भी हमारा दुश्मन हो जाए तो भी हमें क्या हानि पहुंचा सकता है? मेरे जीवन के दिन समाप्त हो गए हैं। मैं एक समाज की तरह सवेरे के प्रकाश की गोद मे समाप्त हो रहा हूं, मगर हमारा विश्वास एवं विचार बिजली की कड़कड़हाट की भाति सारे संसार को प्रकाशित करेंगे। इस हालत में ये मुट्ठीभर धूल बर्बाद हो भी जाए तो इसमें डर की क्या बात है?'
लाहौर सेंट्रल जेल में उन दिनों चीफ वॉर्डन एक रिटायर फौजी हवलदार सरदार चतुर सिंह थे। वे भगत सिंह के पास गए और कहा- 'बेटा, अब तो आखिरी वक्त आ पहुंचा है। मैं तो तुम्हारे बाप के बराबर हूं। मेरी एक बात मान लो कि आखिरी वक्त में चाहे गुरु का नाम ले लो और गुरुबाणी का पाठ कर लो। यह लो गुटका, तुम्हारे लिए लाया हूं।'
यह सुनते ही भगत सिंह ठहाका मारकर हंस पड़े तथा आजादी के इस परवाने ने कहा- 'अगर कुछ समय पहले तक आप मुझसे यह कहते तो आपकी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। अब जब आखिरी वक्त आ गया है और मैं परमात्मा को याद करूंगा तो लोग कहेंगे कि वह बुजदिल है। तमाम उम्र तो उसने मुझे याद किया नहीं, जब मौत सामने नजर आने लगी तो मुझे याद करने लगा है।
इसलिए बेहतर यही होगा कि मैंने जिस तरह पहले अपनी जिंदगी गुजारी है, उसी तरह मुझे इस दुनिया से जाने दीजिए, मुझ पर यह इल्जाम तो कई लोग लगाएंगे कि मैं नास्तिक था और मैंने परमात्मा में विश्वास नहीं किया, लेकिन यह तो कोई नहीं कहेगा कि भगत सिंह बुजदिल, बेईमान भी था और आखिरी वक्त मौत को सामने देखकर उसके पांव लड़खड़ाने लगे।' (वार्ता)