मदर टेरेसा शांति की दूत और मानवता की प्रतिमूर्ति थीं। यूगोस्लाविया के स्कॉप्जे में 26 अगस्त 1910 को जन्मीं एग्नेस गोंझा बोयाजिजू ही 'मदर टेरेसा' बनीं।
मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं जिनके पास भारतीय नागरिकता थी। मात्र 18 वर्ष की उम्र में लोरेटो सिस्टर्स में दीक्षा लेकर वे सिस्टर टेरेसा बनीं थी। फिर वे भारत आकर ईसाई ननों की तरह अध्यापन से जुड़ गईं। कोलकाता के सेंट मैरीज हाईस्कूल में पढ़ाने के दौरान एक दिन कॉन्वेंट की दीवारों के बाहर फैली दरिद्रता देख वे विचलित हो गईं। वह पीड़ा उनसे बर्दाश्त नहीं हुई और कच्ची बस्तियों में जाकर सेवा कार्य करने लगीं।
इस दौरान 1948 में उन्होंने वहां के बच्चों को पढ़ाने के लिए एक स्कूल खोला और तत्पश्चात 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की। 'सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी निष्फल नहीं होता', यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई। काम इतना बढ़ता गया कि सन् 1996 तक उनकी संस्था ने करीब 125 देशों में 755 निराश्रित गृह खोले जिससे करीबन 5 लाख लोगों की भूख मिटने लगी।
हमेशा नीली किनारी की सफेद धोती पहनने वाली मदर टेरेसा का कहना था कि दुखी मानवता की सेवा ही जीवन का व्रत होना चाहिए। हर कोई किसी न किसी रूप में भगवान है या फिर प्रेम का सबसे महान रूप है सेवा। यह उनके द्वारा कहे गए सिर्फ अनमोल वचन नहीं हैं बल्कि यह उस महान आत्मा के विचार हैं जिसने कुष्ठ और तपेदिक जैसे रोगियों की सेवा कर संपूर्ण विश्व में शांति और मानवता का संदेश दिया।
एक प्रसंग के अनुसार मदर टेरेसा से एक बार एक इंटरव्यू करने वाले ने पूछा - जब आप प्रार्थना करती हैं तो ईश्वर से क्या कहती हैं?
मदर ने जवाब दिया - मैं कुछ कहती नहीं, सिर्फ सुनती हूं। इंटरव्यू करने वाले को ज्यादा तो समझ नहीं आया, पर उसने दूसरा प्रश्न पूछा - तो फिर जब आप सुनती हैं तो ईश्वर आपसे क्या कहता है? मदर - वह भी कुछ नहीं कहता, सिर्फ सुनता है। कुछ देर मौन छा गया, इंटरव्यू करने वाले को आगे का प्रश्न समझ ही नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए। थोड़ी देर बाद इस मौन को तोड़ते हुए मदर ने खुद कहा- क्या आप समझे, जो मैं कहना चाहती थी, मुझे माफ कीजिएगा मेरे पास आपको समझाने का कोई दूसरा तरीका नहीं है।
वे स्वयं लाखों लोगों के इलाज में जुट गईं और शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजी गईं। मदर टेरेसा आज हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनके विचारों को मिशनरीज ऑफ चैरिटी की सिस्टर्स आज भी जीवित रखे हुए हैं। उन्हीं में से कुछ सिस्टर्स आज भी सेवा कार्य में जुटी हुई हैं।
मिशनरीज ऑफ चैरिटी में रह रहीं सिस्टर्स तन-मन-धन से अनाथों की सेवा में लगी हुई हैं। सिस्टर्स मानती हैं कि हम लोग जो भी कार्य कर रहे हैं उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद देते हैं कि उसने हमें इस काम के योग्य समझा। उनकी यह सेवा पूरी तरह नि:स्वार्थ सेवा है। सिस्टर्स के साथ दूसरे सहयोगी भी हैं, जो सिक होम में रह रहे मरीजों की सेवा करते हैं, उनकी साफ-सफाई का ध्यान रखते हैं, उन्हें अच्छा खाना देते है। उनके लिए धर्म, जाति और वर्ग का कोई मतलब नहीं है।
यहां सभी धर्मों के लोग आते हैं और एकसाथ रहते हैं। उनका कार्य बस उनकी सेवा करना है। अगर किसी की मृत्यु होती है, तो उसका अंतिम संस्कार भी उसी के धर्मानुसार ही किया जाता है।
कहा जाता है कि मदर टेरेसा द्वारा स्थापित मिशनरीज ऑफ चैरिटी की शाखाएं असहाय और अनाथों का घर है। उन्होंने ‘निर्मल हृदय’और ‘निर्मला शिशु भवन’के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों की स्वयं सेवा करती थीं। मदर टेरेसा का देहावसान 5 सितंबर 1997 को हो गया था, ऐसी मानवता की महान प्रतिमूर्ति को हम सभी का शत् शत् नमन।