भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति रहे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक, आस्थावान, हिन्दू विचारक और भारतीय संस्कृति के संवाहक थे। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म चेन्नई से 40 किलोमीटर दूर तमिलनाडु में आंध्रप्रदेश से सटे स्थान तिरूतनी नाम के एक गांव में 5 सितम्बर सन् 1888 को हुआ था। और उन्हीं के जन्म दिवस 5 सितम्बर को भारत में शिक्षक दिवस यानी teachers day के रूप में यह दिन बेहद ही सम्मानपूर्वक मनाया जाता है।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन बचपन से ही मेधावी थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम.ए. की उपाधि ली और सन् 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हो गए। इसके बाद वे प्राध्यापक भी रहे। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेख और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शनशास्त्र से परिचित कराया। पूरे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा भी की गई।
डॉ राधाकृष्णन सन् 1938 में गांधी जी से मिलने सेवाग्राम जा पहुंचे। उस समय गांधी जी देशवासियों से मूंगफली खाने पर जोर दे रहे थे। बापू लोगों को दूध पीने से मना किया करते थे। उनका मानना था कि दूध गाय के मांस का ही अतिरिक्त उत्पादन है। जब डॉ. राधाकृष्णन गांधी जी से मिलने पहुंचे तो गांधी जी ने उनसे भी ये बातें कहीं। तब डॉ. राधाकृष्णन ने जवाब दिया- तब तो हमें मां का दूध भी नहीं पीना चाहिए।
डॉ. राधाकृष्णन अपने राष्ट्रप्रेम के लिए विख्यात थे, फिर भी अंग्रेजी सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि से सम्मानित किया क्योंकि वे छल-कपट और अहंकार जैसे भाव से कोसों दूर थे। एक बार शिकागो विश्वविद्यालय ने डॉ. राधाकृष्णन को तुलनात्मक धर्मशास्त्र पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था। वे भारतीय दर्शनशास्त्र परिषद् के अध्यक्ष भी रहे। कई भारतीय विश्वविद्यालयों की भांति कोलंबो एवं लंदन विश्वविद्यालय ने भी अपनी-अपनी मानद उपाधियों से उन्हें सम्मानित किया था।
डॉ. राधाकृष्णन के तर्कपूर्ण हाजिर-जवाबी से पूरी दुनिया उनकी कायल थी। जब एक बार वे भारतीय दर्शन पर व्याख्यान देने इंग्लैंड गए, तब वहां बड़ी संख्या में लोग उनका भाषण सुनने आए थे, तभी एक अंग्रेज ने उनसे पूछा- क्या हिंदू नाम का कोई समाज, कोई संस्कृति है? तुम कितने बिखरे हुए हो? तुम्हारा एक सा रंग नहीं- कोई गोरा तो कोई काला, कोई धोती पहनता है तो कोई लुंगी, कोई कुर्ता तो कोई कमीज। देखो हम सभी अंग्रेज एक जैसे हैं- एक ही रंग और एक जैसा पहनावा। इतना सुनने के बाद राधाकृष्णन ने तत्काल उस अंग्रेज को जवाब दिया- घोड़े अलग-अलग रूप-रंग के होते हैं, पर गधे एक जैसे होते हैं। अलग-अलग रंग और विविधता विकास के लक्षण हैं। इस पर वहां उपस्थित सभी ने चुप्पी साध ली।
भारत की स्वतंत्रता के बाद भी डॉ. राधाकृष्णन ने अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे पेरिस में यूनेस्को नामक संस्था की कार्यसमिति के अध्यक्ष भी बनाए गए थे, और यह संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ का एक अंग है और पूरे संसार के लोगों की भलाई के लिए अनेक कार्य करती है। डॉ. राधाकृष्णन सन् 1949 से सन् 1952 तक रूस की राजधानी मास्को में भारत के राजदूत पद पर रहे। भारत-रूस की मित्रता बढ़ाने में उनका भारी योगदान रहा। अनेक विभिन्न महत्वपूर्ण उपाधियों पर रहते हुए भी उनका ध्यान सदैव अपने संपर्क में आए लोगों और विद्यार्थियों में राष्ट्रीय चेतना बढ़ाने की ओर रहता था।
एक प्रकांड विद्वान, दार्शनिक, शिक्षाविद और लेखक रहे डॉ. राधाकृष्णन को उनके इन्हीं गुणों के कारण ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने देश का सर्वोच्च अलंकरण 'भारत रत्न' प्रदान किया था। डॉ. राधाकृष्णन सन् 1952 में भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। 13 मई, 1962 को वे भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बने तथा सन् 1967 तक राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने देश की बहुमूल्य सेवा की।
एक लंबी बीमारी के बाद 17 अप्रैल 1975 को डॉ. राधाकृष्णन का निधन हो गया था। कबीरदास द्वारा लिखी गई 'गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांव, बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय' यह पंक्तियां हमें जीवन में गुरु के महत्व को दर्शाती हैं। हमारे यहां प्राचीन समय से ही गुरु व शिक्षक परंपरा चली आ रही है। डॉ. राधाकृष्णन भी एक महान दार्शनिक, शिक्षाविद और लेखक थे और उन्होंने अपना जन्मदिवस शिक्षकों के लिए समर्पित किया। इसलिए 5 सितंबर सारे भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। और दुनियाभर के समस्त शिक्षकों के सम्मान में 'विश्व शिक्षक दिवस' 5 अक्टूबर को मनाया जाता है।