अमेरिका के जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद नर्क से भी बदतर हो गए 2 शहर

राम यादव

शनिवार, 9 अगस्त 2025 (08:28 IST)
America atomic bomb attack on Japan: जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए दो परमाणु बमों की विनाश लीला के पहले भाग में हमने देखा कि अमेरिका ने 1945 में दो परमाणु बम बनाए थे। दुनिया को दोनों बमों की संहारक शक्ति को दिखाने के लिए उसने हिटलर के जर्मनी को नहीं, जापान को चुना। इसके पीछे अमेरिका का अहंकार भी था और नस्लवाद भी।
 
अमेरिकी निर्णय में नस्लवाद की गंध थी! : यह अटकलें भी रही हैं कि अमेरिका ने अपना पहला बम गिराने के लिए जर्मनी के बदले जापान को ही लक्ष्य इसलिए बनाया, क्योंकि अमेरिका मूलतः यूरोप से आ कर वहां बस गए लोगों का देश है। उनके बीच जर्मनों का अनुपात लगभग एक-चौथाई था। परमाणु बम बनाने में लगे रॉबर्ट ओपनहाइमर जैसे कई प्रमुख यहूदी या ग़ैर-यहूदी वैज्ञानिक भी जर्मनी से ही आए और अमेरिका में बस गए थे। उनके कुछ न कुछ परिजन जर्मनी में ही थे। जबकि एशियाई जापान, अमेरिका वालों के लिए हर दृष्टि से विदेश था। पर्ल हार्बर पर आक्रमण के बाद से जापान ही अमेरिका के लिए परम शत्रुदेश भी था। उसके प्रति रत्ती भर भी दया या मानवीयता दिखाने का मानो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।
 
अमेरिका को यह भी मालूम था कि हिटलर के वैज्ञानिक भी जर्मन परमाणु बम बनाने में व्यस्त हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में जर्मनी के जिस भूभाग पर अमेरिकी सैनिक पहले पहुंचे, वहां उन्होंने रूसियों के आने से पहले ही जर्मन बम के बारे में हर संभव जानकारी जुटाने की पूरी कोशिश की। एक जगह उन्हें ज़मीन में गड्ढे खोदकर छिपाए गए यूरेनियम के बहुत से पीपे मिले।
 
अमेरिकी बम के लिए जर्मन यूरेनियम : कैलीफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सॉन मैलोय का एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में कहना है, 'इन अमेरिकी सैनिकों की एक रिपोर्ट के अनुसार, पीपों वाली जगह के पास एक कारख़ाना था, जहां कागज़ की बड़ी मज़बूत थैलियां बनती थीं। ज़ब्त कर ली गईं कागज़ की इन्हीं थैलियों में पीपों वाले यूरेनियम को भरकर और ट्रकों पर लादकर वहां से हटाया गया। विमान द्वारा पहले ब्रिटेन और वहां से फिर अमेरिका पहुंचाया गया।' इस तरह क़रीब एक हज़ार टन यूरेनियम जर्मनी से अमेरिका पहुंचा।
 
पश्चिमी अमेरिका के वॉंशिंगटन राज्य में स्थित हैनफ़ोर्ड नाम के शहर में इस यूरेनियम से परमाणु बम लायक संवर्धित यूरेनियम और प्लूटोनिय प्राप्त किया गया। यही सामग्री अप्रैल 1945 में लोस अलामोस भेजी गई, जहां परमाणु वैज्ञानिक अमेरिका का पहला परमाणु बम बनाने में लगे हुए थे। उस समय तक उन्हें कोई निर्णायक सफलता हाथ नहीं लगी थी। बल्कि संदेह होने लगा था कि बम बनाने की उनकी विधि काम करेगी भी या नहीं। तब तक तीन वर्ष बीत चुके थे और दो अरब डॉलर से अधिक धन ख़र्च हो चुका था। 
 
बम की योजना रूज़वेल्ट की विरासत थी : अमेरिकी परमाणु बम की इस गोपनीय योजना पर अनेक वैज्ञानिकों सहित दो लाख लोग काम कर रहे थे। उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट, 1945 की वसंत ऋतु आने तक बहुत बीमार हो गए। वे चाहते थे कि अमेरिकी परमाणु बम, रूसी बम से पहले ही बन जाना चाहिए। 12 अप्रैल, 1945 को मस्तिष्काघात (इन्ट्रासेरीब्रल हेमोरेज) से हुई अपनी मृत्यु से एक ही सप्ताह पहले, अमेरिकी कांग्रेस (संसद) के अनुमोदन के बिना ही, रूज़वेल्ट ने बम के प्रयोग का आदेश दे दिया था। उनकी मृत्यु के बाद हैरी ट्रूमैन नए राष्ट्रपति बने। 
 
द्वितीय विश्वयुद्ध 1 सितंबर, 1939 को शुरू हुआ था। किंतु जापान 1937 से ही एशिया में लड़ने-भिड़ने में व्यस्त था। एक राजशाही देश होते हुए भी वहां सेना की तूती बोलती थी। सेना वयस्कों ही नहीं, 11-12 साल के बच्चों तक को पट्टी पढ़ा रही थी कि (आजकल के आत्मघाती इस्लामी आतंकवादियों की तरह)  आत्माघाती हमलों द्वारा शत्रु को मारते हुए देशहित में मरना मोक्ष या देवत्व प्राप्त करने के समान है। 
 
जापानी कुछ समय पहले तक मुंह नहीं खोलते थे : उस समय किशोरवय में ही सेना की सेवा कर चुके कई वयोवृद्ध जापानियों ने हाल ही में इस परिपाटी की पुष्टि की है। ऐसी बातों के बारे में जापानी कुछ समय पहले तक मुंह नहीं खोलते थे। 10 साल की स्कूली छात्रा रही रेइको यामादा ने ऐसे ही एक इंटरव्यू में कहा, 'स्कूल में हमें लगभग कुछ नहीं पढ़ाया गया। केवल सैनिकों की तरह मार्च करना और लाल-सफ़ेद राष्ट्रीय झंडा लहराना सिखाया गया।' 1945 का आरंभ आते-आते जापानी सेना की कमर टूट चुकी थी। तब भी हार मानने की शर्मिन्दगी उसे स्वीकार नहीं थी। स्मरणीय है कि जपानी सेना को हो रही भारी क्षतियों के कारण ही उस समय उसकी सहायता पर आश्रित नेताजी बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज भी पूर्वी भारत में आगे नहीं बढ़ पा रही थी।
 
1945 में अमेरिकी बमवर्षक हर रात जापानी शहरों पर कहर बरपा रहे थे। टोकियो पर एक ही रात की बमबारी में एक लाख से अधिक लोग मारे गए। चार ही महीनों की अमेरिकी बमबारी ने 66  जापानी शहर भूमिसात कर दिए। अनुमान है कि इन शहरों में कुल 4 लाख लोग मरे। जापानी सेना तब भी जनता से यही कहती रही कि हमें झुकना नहीं, अंतिम सांस तक लड़ते रहना है। सेना के अभिलेखागारों में अब ऐसी फ़िल्में और दस्तावेज़ मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि जापानी जनता युद्ध से कितनी थक और ऊब चुकी थी। सेना के ऊंचे अफ़सर भी इस सच्चाई को जानते थे। तब भी प्रचार यही कर रहे थे कि विजय सन्निकट है। 
 
सम्राट ने सेना से आत्मसमर्पण करने को कहा : सेना के प्रचार पर विश्वास शायद ही कोई कर पा रहा था। पर, देशप्रेम के नाम पर सभी चुप थे। अंततः जपान के सम्राट हिरोहितो को सेना से कहना पड़ा कि उसे आत्मसमर्पण की तैयारी करनी चाहिए। सम्राट जिस समय सेना से यह कह रहे थे, उस समय अमेरिका के लोस अलामोस मरुस्थल में पहले परमाणु बम के परीक्षण की तैयारी चल रही थी। परीक्षण के निदेशक रॉबर्ट ओपनहाइमर की देखरेख में, 16 जुलाई 1945 के दिन, स्थानीय समय के अनुसार साढ़े पांच बजे बम का सफल परीक्षण हुआ। पोट्सडाम शिखर सम्मेलन में भाग ले रहे राष्ट्रपति ट्रूमैन को तुरंत इसकी ख़बर दी गई। इस ख़बर ने जापान से बदला लेने की अमेरिकी अकड़ को जापान के लिए दम घोट जकड़ बना दिया।  
 
ट्रूमैन ने 26 जुलाई, 1945 को पोट्सडाम शिखर सम्मेलन में घोषित किया कि हमारी संपूर्ण सैन्य शक्ति और दृढ़निश्चय का अर्थ है, जापानी सेना का अपरिहार्य विनाश और जापान देश का अपरिहार्य विध्वंस। जापान पर पूरी तरह क़ब्ज़ा कर लिया जाएगा। उसके नेताओं को अपदस्थ और तहस-नहस कर दिया जाएगा। इस घोषणा के 11वें दिन, हिरोशिमा पर पहला और 14वें दिन नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया गया।
 
सम्राट ही जापानी जनता के हृदय-सम्राट भी थे : दोनों बम जापान के नेताओं पर नहीं, जनता पर गिरे। जनता मरी और देश तहस-नहस हुआ। नई जानकारियों के प्रकाश में अब कहा जा रहा है कि पोट्सडाम सम्मेलन की संयुक्त विज्ञप्ति से यह स्पष्ट नहीं था कि जापान के आत्मसमर्पण के बाद, जनता के बीच देवता की तरह सम्मानित सम्राट का पद बना रहेगा या नहीं। यदि यह स्पष्ट होता कि सम्राट का पद बना रहेगा, तो आत्मसमर्पण की राह आसान हो जाती। हर सम्राट सदियों से जापानी जनता का हृदय-सम्राट भी रहा है। एक ऐसे जापान को, जिसका कोई सम्राट नहीं है, जनता स्वीकार नहीं कर पाती। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने, पोट्सडाम घोषणा में सम्राट के भविष्य को लेकर भ्रम जानबूझ कर बनाए रखा, ताकि वे अपने परमाणु बमों को जापान पर पटक कर उसे अपनी उंगली के इशारे पर नचा और दुनिया पर अमेरिका की धाक जमा सकते।  
 
पहले बम के लिए हिरोशिमा को संभवतः इसलिए चुना गया कि वह जापानी संस्कृति का एक तरह से पर्याय था, बहुत ही आकर्षक था और वहां सेना की बहुत बड़ी छावनी भी थी। पश्चिमी जापान का वही सबसे बड़ा शहर था। पहला परमाणु बम गिरने तक वह अमेरिकी बमबारी से अछूता रह गया था। पर इस आशंका से, कि वहां किसी भी समय अमेरिकी बमबारी हो सकती है, अगस्त 1945 के शुरू में वहां के 23 हज़ार बच्चों को देहाती इलाकों में भेज दिया गया। जापान की अमेरिकी नाकेबंदी के कारण खाने-पीने की चीज़ों का तब तक इतना अकाल पड़ गया था कि इन बच्चों को पेड़ों की पत्तियां और घास तक खानी पड़ती थी।
 
नरक जैसा डरावना दृश्य : जो लोग और बच्चे बम फटने के समय हिरोशिमा के केंद्र में थे, वे यदि उसी क्षण पैदा हुई भीषण गर्मी, हवा के प्रचंड झोंके या रेडियोधर्मी कणों की बौछार से कुछ ही क्षणों या मिनटों में मर नहीं गए, तो वे अंधे, बहरे या लूले-लंगड़े हो गए। उनके कान, हाथ-पैर या दूसरे अंग शरीर से टूट कर झड़ गए। कपड़े और शरीर जल गए। जो मर गए थे, उनका शरीर भुन कर गहरे काले रंग का हो गया था। जीवितों के शरीर से त्वाचा और मांस के झुलसे हुए लोथड़े लटक रहे थे। खून यदि भाप बन कर सूख नहीं गया था तो सारे शरीर से टपक रहा था या ख़ून की उल्टी हो रही थी। चेहरे जल कर विद्रूप हो गये थे। सड़कों पर पड़े ऐसे लोगों और बच्चों के ढेर, अकड़े हुए अस्थि-पंजरों या चीखती-कराहती भुतही लाशों जैसे बिखरे पड़े थे। 
 
जब क्षण भर में हज़ारों-लाखों लोगों का ऐसा वीभत्स हाल हो जाए, तो उनकी सहायता भी भला कौन कर सकता था। न खाने को कुछ था, न पीने को। भूख-प्यास असह्य हो जाने पर जिस किसी ने नदी-तालाब का पानी पिया या घास-फूस खाया, उसके शरीर में जानलेवा रेडियोधर्मिता और बढ़ी। उस समय के कुछ उत्तरजीवी अब स्वीकार करते हैं कि भूख की मार असह्य हो जाने पर शर्म-हया और नैतिकता भी मर गई। चोरी-डकैती, लूट-मार और यहां तक कि नरभक्षण (कनीबलिज़्म) भी होने लगा। मृतकों के मुंह से सोने (गोल्ड) वाले दांत उखाड़ लिए जाते थे। 
 
लाशों से उठती असह्य दुर्गंध : लोग बताते हैं कि मरघट जैसी शांति के बीच चारों ओर पड़ी लाशों से उठती दुर्गंध इतनी असह्य होती थी कि आदमी पागल हो जाए। बम गिरने से कुछ ही दिन पहले हिरोशिमा के जो 23 हज़ार बच्चे देहातों में भेजे गए थे, वे जब अपने घरों को लौटे, तो अधिकांश ने यही पाया कि न तो उनके घर बचे थे और न घरवाले। भूख-प्यास या बीमारी से जो अनाथ बच्चे मरते थे, उन्हें कूड़े-कचरे के साथ जला दिया जाता था। जो बच्चे या वयस्क जीवित रह गए थे, विकलांग या कुरूप हो गए थे, उन्हें 'हिबाकुशा' कहा जाने लगा। स्वस्थ लोग उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते थे। उनसे दूर रहते थे। उन्हें कोई नौकरी-धंधा या जीवनसाथी नहीं मिलता था। उन्हें सब जगह अपमानित और तिरस्कृत होना पड़ता था।
 
पृथ्वी के इतिहास में मानवरचित ऐसा अकल्पनीय नरक इससे पहले कभी नहीं रहा होगा। यह भी अकल्पनीय ही कहलाएगा कि सारी दुनिया में हिरोशिमा की चर्चा थी–– नहीं थी, तो जापान में। सरकार और सेना ने तय किया था कि देश की जनता को इस बारे में कुछ नहीं बताना है। प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई। अमेरिकी प्रेस में भी जपानियों की दारुण दशा के बारे में शायद ही कभी कुछ लिखा-कहा जाता था। काफ़ी समय बाद जब कुछ लिखने-छपने लगा भी, तो यह तर्क दिया जाने लगा कि बम गिराने के बदले यदि अमेरिकी सैनिक जापान में उतारे जाते, तो 10 लाख सैनिकों की बलि देनी पड़ती। अमेरिकी जनता इसे पसंद नहीं करती!
 
नागासाकी में भी यही हाल : हिरोशिमा के तीन दिन बाद, 9 अगस्त को उसी ढर्रे पर नागासाकी में भी वही हुआ, जो हिरोशिमा में हुआ था। जापानी वायुसेना ने एक बार फिर अमेरिकी विमानों को न तो रोका ओर न उन्हें मार-गिराने का कोई प्रयास किया। इसका एक कारण यह रहा हो सकता है कि एक दिन पहले, 8 अगस्त को, स्टालिन ने जापान अधिकृत मंचूरिया पर आक्रमण कर दिया था। जापानी सेना के उच्च अधिकारी संभवतः इस नए आक्रमण का उत्तर देने में व्यस्त थे।
 
जून 1941 में जब जर्मनी के हिटलर ने स्टालिन के सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया और सोवियत संघ को भी जर्मनी-जापान-इटली वाली धुरी-शक्तियों (ऐक्सि पावर्स) के विरोधी, अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस के मित्र-राष्ट्र (एलाइड पवर्स) गुट में शामिल होना पड़ा, तो उस समय स्टालिन ने वादा किया था कि ज़रूरत पड़ने पर उनका सोवियत संघ जापान के विरुद्ध अलग से मोर्चा खोलेगा। 
 
रूसियों ने पीठ में छुरा भोंका : जापान ऐसा नहीं मान रहा था कि कुछ ही दिन पहले पोट्सडाम सम्मेलन के समय जिस सोवियत संघ के माध्यम से वह शांतिवार्ताएं आरंभ करवाने का प्रयास कर रहा था, वही सोवियत संघ पलटकर उसकी पीठ में छुरा भोंक देगा। विपरीत काल में मुसीबत आती है, तो हर तरफ़ से आती है। निरीह जापानियों को ऐसा लग रहा था, मानो सारी दुनिया मिलकर उनका अस्तित्व ही मिटा देना चाहती है।
 
तीन ही दिनों में नागासाकी को भी परमाणु बम का निशाना बनाना, मरे हुए को एक बार फिर से मारने के समान था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 8 अगस्त, 1945 को जापान के विरुद्ध स्टालिन की युद्ध-घोषणा से अमेरिका को यह डर लगने लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि वह अपने प्लूटोनियम बम ‘फैट मैन’ का जापान में परीक्षण ही न कर पाए। इसी डर से नागासाकी पर दूसरा बम गिराने की तारीख 13 के बदले 9 अगस्त कर दी गई।

अमेरिका यह भी सुनिश्चित करना चाहता था कि रूसी सैनिक, जर्मनी की तरह, कहीं जापानी मुख्यभूमि पर भी पहले पहुंचकर वहां अपना झंडा न फहरा दें। तब हो सकता था कि जापान, अमेरिकी हाथ से पूरी तरह फिसल जाता या फिर जर्मनी की ही तरह जापान की भी बंदरबांट करनी पड़ती। स्मरणीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में स्टालिन के सैनिकों ने, अमेरिकी सैनिकों से पहले बर्लिन पहुंचकर वहां अपना झंडा फहरा दिया। इस कारण अमेरिका और उसके साथी देशों ब्रिटेन तथा फ्रांस को जर्मनी का बंटवारा स्वीकार करना पड़ा।
 
मरते को मारना अमानुषिकता है : नए-पुराने इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि पोट्सडाम शिखर सम्मेलन की समाप्ति के चार ही दिन बाद अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर पहला और पहले बम के तीन दिन बाद नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराकर लाखों लोगों की जान ले लेना, घायल कर देना, अपंग, अनाथ और बेघर बना देना एक सरासर अनावश्यक, कुत्सित, कायरतापूर्ण घोर अमानुषिक कृत्य नहीं था तो और क्या था? 
 
प्रश्न यह भी पैदा होता है कि जापान के साथ जो कुछ हुआ, क्या वह दुनिया को समता, सहिष्णुता और लोकतंत्र का उपदेश देने वाले और अपने आप को इन मूल्यों का सिरमौर मानने वाले अमेरिका और ब्रिटेन के अंधराष्ट्रवाद और नस्लवाद की ही एक अभिव्यक्ति नहीं था? यदि अमेरिका जैसा एक सर्वसाधन संपन्न लोकतंत्र भी किसी दूसरी जनता के साथ वैसी ही नृशंसताएं कर सकता है, जो हिटलर, स्टालिन या माओ की तानाशाहियों ने अपनी जनता के साथ की हैं, तो लोकशाही और तानाशाही के बीच नैतिक अंतर ही क्या रहा? 
 
कहीं ऐसा तो नहीं है कि बहुप्रशंसित लोकशाही भी उन कमियों और बुराइयों से बच सकने की कोई गारंटी नहीं है, जो तानाशाहियों की मौलिक पहचान कहलाती हैं! हिरोशिमा और नागासाकी की विभीषिका वास्तव में किसी बम की अपूर्व संहारक शक्ति से अधिक, पर-उपदेशी पश्चिमी लोकतंत्रों की अमानवीय अनैतिकता को कहीं अधिक दर्शाती है। इस विभिषिका से यही शिक्षा मिलती है कि हम अमेरिका-इंग्लैंड जैसे पश्चिमी लोकतंत्रों को लोकतांत्रिक का आदर्श पैमाना कतई नहीं मान सकते। 
 
आलेख का पहला भाग : सिर्फ 5 सेकंड में 80 हजार लोगों की मौत
अमेरिकी बर्बरता की दिल दहलाने वाली कहानी

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