नेपाल में न्यायालय भी क्यों है जनता के निशाने पर?

डॉ.ब्रह्मदीप अलूने

शुक्रवार, 12 सितम्बर 2025 (10:36 IST)
कार्यपालिका और व्यवस्थापिका भ्रष्ट और गुमराह हो सकती है लेकिन न्यायपालिका कभी नहीं। संविधानिक और लोकतांत्रिक देशों में जनता को न्यायालय पर खूब भरोसा होता है,लेकिन नेपाल में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। हाल ही में हिंसक प्रदर्शनों में यह देखने में आया की आम जनता का जितना गुस्सा राजनीतिज्ञों पर है,वे न्यायालय से भी बहुत नाराज है। प्रदर्शनकारियों ने राजनीतिक लोगों पर तो अपना गुस्सा निकाला ही,उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के भवन में भी आग  लगा दी। 2008 में नेपाल में जब लोकतंत्र आया तो लोगो ने यह समझा की अब देश के न्यायालय राजा और माओवादियों के दबाव में काम नहीं करेंगे बल्कि स्वतंत्र और पारदर्शिता से न्याय प्राप्त होगा।
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राजतंत्र के दौरान देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब रही। सैन्य न्यायाधिकरणों और माओवादियों की जन अदालतों से देश की सामान्य न्यायिक प्रणाली अस्थिर हो गई थी। न्यायपालिका की क्षमता और ईमानदारी संदिग्ध थी और वहां भ्रष्टाचार का स्तर बहुत ऊंचा था। वकीलों को उत्पीड़न और शारीरिक ख़तरे का सामना करना पड़ता था तथा न्यायाधीशों को धमकियां मिलती थी और उन पर जानलेवा हमलें भी हुआ करते थे। लोकतंत्र आने के बाद  न्यायपालिका भ्रष्टाचार के केंद्र बन गए तथा न्यायाधीशों ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को संरक्षण देना शुरू कर दिया। इसका आम जनता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और जनता के बीच न्यायालय की विश्वसनीयता धूमिल हो गई।

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के साथ न्यायपालिका की गोलबंदी के  कुछ उदहारण भी देश के सामने आएं। मई 2011 में नेपाल के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यरत रहे खिलराज रेग्मी  बाद में देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी बना दिए गए। नेपाल की राजनीति में पक्ष और  विपक्ष तो कोई होता ही नहीं है,मिलीजुली सरकारों में सब सत्ता पर टकटकी लगाएं होते है,वहीं न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में भी इनका गहरा हस्तक्षेप होता है।
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नेपाल के संविधान में अनुच्छेद 153 के अनुसार न्यायिक परिषद को नियुक्ति,स्थानांतरण,अनुशासनात्मक कार्रवाई, बर्खास्तगी और न्याय प्रशासन से संबंधित अन्य मामलों पर सिफारिश या परामर्श करने का संवैधानिक प्रावधान है। न्यायिक परिषद के गठन में,मुख्य न्यायाधीश,सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश,प्रधान मंत्री की सिफारिश पर एक न्यायविद और नेपाल बार एसोसिएशन की सिफारिश पर एक वरिष्ठ अधिवक्ता से मिलकर 5 सदस्यों की व्यवस्था है। एक स्वतंत्र न्यायपालिका बनाने के लिए,न्यायिक परिषद को भी स्वतंत्र रहना होता है। वर्तमान न्यायिक परिषद,जो न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है,स्वयं कार्यपालिका बहुमत रखती है। यदि स्वतंत्र न्यायपालिका के गठन में न्यायपालिका का बहुमत नहीं है, तो राजनीतिक हस्तक्षेप का खतरा बना रहा है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका  के प्रभाव के बाद न्याय परिषद भी राजनीतिक हस्तक्षेप से अछूती नहीं रह सकी।

न्यायपालिका को लेकर जनता में तो अविश्वास है ही,जजों के बीच भी यह विश्वास की कमी साफतौर पर देखी गई है। एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में 25 अक्टूबर 2021 को मुख्य न्यायाधीश राणा द्वारा बुलाई गई पूर्ण न्यायालय की बैठक का बहिष्कार करते हुए,न्यायाधीशों ने न्यायपालिका की अखंडता और स्वतंत्रता को कथित रूप से कमज़ोर करने का आरोप लगाते हुए राणा के इस्तीफे की माँ मांग की थी। न्यायाधीशों ने विशेष रूप से राणा और कार्यपालिका के बीच संबंधों के आरोपों की ओर इशारा किया।

उन्होंने विशिष्ट न्यायाधीशों को सुनवाई के लिए मामलों के आवंटन और संवैधानिक नियुक्तियों के खिलाफ कई रिटों को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध न करने से संबंधित आरोपों का भी हवाला दिया,जिनमें राणा ने भाग लिया था। इस दौरान 19 में से 18 न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर राणा के पद छोड़ने तक सर्वोच्च न्यायालय की पीठों पर बैठने से इनकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बहिष्कार के बाद, नेपाल बार एसोसिएशन ने भी मुख्य न्यायाधीश के इस्तीफे की मांग की थी।
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अंतर्राष्ट्रीय न्याय आयोग,ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी यह स्वीकार किया है की नेपाल में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता उसके सर्वोच्च न्यायालय में व्याप्त संकट के कारण खतरे में पड़ रही है।  मानवाधिकारों और कानून के शासन को बनाए रखने के लिए, इस संकट का समाधान इस तरह से करना आवश्यक है जिससे न्यायालय की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता बनी रहे और बढ़े।

नेपाल में विद्रोह के बाद सुशीला कार्की का नाम भी अंतरिम सरकार की मुखिया के रूप में सामने आया है। सुशीला कार्की 11 जुलाई 2016 से 6 जून 2017 तक नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश थीं। 2017 में उनके खिलाफ महाभियोग लाया गया था। सुशीला कार्की पर पूर्वाग्रह और कार्यपालिका में हस्तक्षेप का आरोप लगा था। दरअसल सुशीला कार्की ने  2012 में पूर्व सूचना मंत्री जयप्रकाश गुप्ता को भ्रष्टाचार मामले में दोषी ठहराया था। यह फैसला नेपाल की राजनीतिक सत्ता को स्वीकार नहीं था और इसका परिणाम ही उनपर लगाया महाभियोग था।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका को जनता की अंतिम आशा माना जाता है,किंतु यदि उसके निर्णय राजनीतिक दबाव से प्रभावित प्रतीत हो तो लोकतंत्र की नींव हिल सकती है। नेपाल में लोगों का यह गुस्सा व्यवस्थाओं पर भरोसा टूटने से उभर कर आया है और इसमें न्यायपालिका पर अविश्वास ने आग में घी का काम किया है।
 

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