चिश्तिया सिलसिले के सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया का 706वाँ उर्स 2 अप्रैल से 6 अप्रैल तक मनाया जाता है। बाइस ख्वाजाओं की चौखट कहे जाने वाले दिल्ली शहर में जो शोहरत उन्हें मिली वो उनके प्रिय मुरीद अमीर खुसरो को छोड़ कर किसी और के हिस्से में नहीं आई। उनका खानदान मध्य एशिया के शहर बुखारा से हिजरत करके लाहौर होता हुआ बदायूँ पहुँचा। यहाँ 642 हिजरी में ख्वाजा अहमद के घर उनका जन्म हुआ।
उनका पूरा नाम मुहम्मद बिन अहमद बिन दानियाल अल बुखारी था। पाँच वर्ष की आयु में ही पिता का साया सर से उठ गया। बहन के साथ दिल्ली आए और यहाँ उलेमा से औपचारिक शिक्षा ग्रहण की। फिर बाबा फरीदुद्दीन गंज शकर के पास अजोधन जाकर उनके शिष्य बने उनसे सूफीमत और सुलूक (व्यवहार व ईश्वर की खोज) की सर्वश्रेष्ठ मंजिलें तय कीं। अजोधन से जब दिल्ली लौटने लगे तो बाबा फरीद ने उन्हें दो नसीहतें दीं।
पहली यह कि किसी से कर्ज लेना तो जल्द अदा करना। दूसरा, अपने दुश्मनों से भी इस प्रकार का अनोखा व्यवहार करना कि उन्हें यह समझ में आ जाए कि तुम उनके मित्र हो। दिल्ली की सीमावर्ती बस्ती गयासपुर में वो एक किराए के मकान में रहते थे जो अब बस्ती हजरत निजामुद्दीन के नाम से मशहूर है। यहीं से उन्होंने रूहानी और विद्वतापूर्ण दानशीलता तथा बरकत (लोक कल्याण) का वह सिलसिला शुरू किया जो आज तक दरगाहों के माध्यम से जारी है।
निजामुद्दीन औलिया ने गयासपुर गाँव के बाहर खानकाह की स्थापना की। यहाँ हर मजहब के विद्वानों और ऋषियों से लेकर आम इंसानों का आना-जाना लगा रहता था। निजामुद्दीन औलिया का यह दस्तूर था कि वे पहले मुसाफिरों, गरीबों, बैरागियों और यतीमों को खिला-पिलाकर फिर आखिर में अपने हुजरे (छोटा कमरा) में तन्हा जौ की बासी रोटी और पानी का कटोरा लिए बैठते थे।
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उनकी खानकाह में रोजाना बिना नागा तीन वक्त लंगर चलता था। ख्वाजा निजामुद्दीन ने जिंदगी भर रोजा रखा और 92 साल तक सुल्तानों और अमीरों से बेनियाज (जिसे किसी से कुछ लेने की इच्छा न हो) अपनी फकीरी में बादशाही करते रहे। उनके सबसे प्रिय मुरीद शायर अमीर खुसरो से राजोनियाज (रूहानी प्रेम की गुप्त बातें) की बातें करते।
एक बार अमीर खुसरो ने ख्वाजा निजामुद्दीन से पूछा, 'मेरे ख्वाजा, ये क्या सितम है कि तमाम दिन रोजा, तमाम रात इबादत और आप दुनिया को खिला कर भी, खुद बासी रोटी पानी में भिगो-भिगो कर खाते हैं।' इसके जवाब में उन्होंने कहा, 'खुसरो ये टुकड़े भी गले से नीचे नहीं उतरते। आज भी देहली शहर की लाखों मखलूक (लोग) में न जाने कितने होंगे जिन्हें भूख से नींद न आई होगी। मेरी जिंदगी में खुदा का कोई बंदा भूखा रहे तो मैं कल खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा?'
निजामुद्दीन औलिया 'अलखल्क अयालुल्लाह' के उसूल पर अमल करते थे। उनकी एक विशेषता थी कि वह अपने विरोधियों के साथ अच्छा व्यवहार करते थे और उनमें ऐसा जज्बा (भावना) पैदा कर देते थे कि वह उनके अनुयायी हो जाते थे।
इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी अपनी किताब (तारीख-ए-फिरोजाशाही) में लिखते हैं, 'हजरत निजामुद्दीन सिर्फ महबूब-ए-इलाही (ईश्वर का प्रेम पात्र) ही नहीं थे बल्कि आम लोगों के खास पसंदीदा भी थे। आमतौर पर लोग तकलीद (अनुसरण) और एतेकाद (श्रद्धा) की वजह से इबादत की तरफ रगबत (अभिलाषा) करते थे।' हजरत निजामुद्दीन ने अपनी इस खुदाई और अवामी मकबूलियत (सर्वप्रियता) के दरमियान वहदत-ए-इलाही (ईश्वरी एकत्व) और वहदत-ए-आदम (मानवीय एकत्व) के सार्वभौमिक संदेश को अपने जीवन का मर्म घोषित किया और एक ऐसी सामाजिक एवं सांस्कृतिक मुहिम का सूत्रपात किया जिसके द्वारा आध्यात्मिक प्यास से व्याकुल लोग समूह दर समूह गयासपुर बस्ती के इस जल स्रोत से तृप्त होने लगे।
निजामुद्दीन जी ने अपने अपार मानवीय प्रेम, परोपकार और उदारता से धार्मिक सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व का एक ऐसा उदात्त वातावरण उत्पन्न किया जिसमें भारतीय संस्कृति इस्लामी जीवन शैली के साथ समरस हुई और इस समीपता से एक ऐसा बहुरंगी सांस्कृतिक परिवेश अस्तित्व में आया जिसने समाज, संस्कृति, भाषा, साहित्य, शायरी, संगीत, निर्माण कला और आम सामाजिक जीवन के ऊपर प्रत्येक स्तर पर अपने प्रभाव डालें।