तीर्थंकर नमि और नेमिनाथ

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वेदकालीन आदितीर्थंकर ऋषभदेव के पश्चात्य तीर्थंकर अजीत, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अरह, मल्लि और मुनिसुव्रत के कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते, किंतु आंतिम चार तीर्थंकर की ऐतिहासिक सत्ता के प्रमाण उपलब्ध हैं। यहाँ प्रस्तुत है 21वें और 22वें तीर्थंकर का परिचय।

तीर्थंकर नमि : 21वें तीर्थंकर नमि के बारे में उल्लेख है कि वे मिथिला के राजा थे। इन्हें राजा जनक का पूर्वज माना जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि वे भगवान राम के पूर्व हुए थे। महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है- मिथिलायां प्रदीप्तायां नमे किज्चन दहय्ते।।

उक्त सूत्र से यह प्रतीत होता है कि राजा जनक की वंश परम्परा को विदेही और अहिंसात्मक परम्परा कहा जाता था। विदेही अर्थात देह से निर्मोह या जीवनमुक्त भाव। नमि की यही परम्परा मिथिला राजवंश में जनक तक पाई जाती है। नमि क्षत्रिय कुल से थे। इनके होने के हिंदू और जैन पुराणों में कई प्रमाण मिलते हैं।

तीर्थंकर नेमिनाथ : महाभारत काल 3137 ई.पू. के लगभग नमि के बाद 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ का उल्लेख हिंदू और जैन पुराणों में स्पष्ट रूप से मिलता है। शौरपुरी (मथुरा) के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। आपकी माता का नाम शिवा था।

नेमिनाथ का विवाह गिरिनगर (जूनागढ़) के राजा उग्रसेन की पुत्री राजुलमती से तय हुआ। जब नेमिनाथजी बरात लेकर पहुँचे तो उन्होंने वहाँ उन पशुओं को बँधे देखा जो बरातियों के भोजन के लिए मारे जाने वाले थे। तब उनका हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा। मनुष्य की इस हिंसामय प्रवृत्ति से उनके मन में विरक्ति और वैराग्य हो उठा। तक्षण वे विवाह का विचार छोड़कर गिरनार पर्वत पर तपस्या के लिए चले गए।

कठिन तप के बाद वहाँ उन्होंने कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर श्रमण परम्परा को पुष्ठ किया। अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल माना और उसे सैद्धांतिक रूप दिया। इति‍। नमो अरिहंताणं।

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