चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्नींत मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन किं मंदराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥ (15)
इसमें ताज्जुबी क्या कि उन बेचारी अप्सराओं का जमघट भी आपके मनोजगत में विकार की रेखा न खींच पाया...! प्रलय का झंझावाती अनिल चाहे सब कुछ पटक दे... उखाड़ दे... पर मेरु पर्वत को हिलाने की क्षमता उस बेचारे में कहाँ से आएगी?