हेतु- शत्रुजन वश में आते हैं, शत्रुता दूर होती है।
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र, धर्मोपदेशन विधौ न तथा परस्य । याद्क्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक्तुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोऽपि ॥ (37)
धर्मोपदेश देते समय (समवसरण में) आपकी शोभा जो देखते ही बनती है, वह अन्य देवों में कहाँ से मिलेगी? अँधेरे को चीरने वाले सूरज की शोभा का अंश भी उन ग्रह-नक्षत्र-तारों में थोड़े ही मिलने का?