हिन्दी अर्थ: अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सभी साधुओं को नमस्कार।
* जैन शब्द का अर्थ : जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन बना है 'जि' धातु से जिसका अर्थ है जीतना। जिन अर्थात जीतने वाला। जिसने स्वयं को जीत लिया उसे जितेंद्रिय कहते हैं।
* तिरसठ शलाका पुरुष : कुलकरों की परम्परा के बाद जैन धर्म में क्रमश: चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ वासुदेव और नौ प्रति वासुदेव मिलाकर कुल 63 महान पुरुष हुए हैं। इन 63 शलाका पुरुषों का जैन धर्म और दर्शन को विकसित और व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
* चौबीस तीर्थंकर : जैन परम्परा में क्रमश: चौबीस तीर्थंकर हुए हैं जिनके नाम निम्नलिखित हैं:- ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांश, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अरह, मल्लि, मुनिव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ और महावीर। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के संबंधी में नीचे उल्लेख मिलेगा।
* जैन त्रिरत्न : सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। 1. सम्यक् दर्शन 2. सम्यक् ज्ञान और 3. सम्यक् चारित्र। उक्त तीनों मिलकर ही मोक्ष का द्वार खोलते हैं। यही कैवल्य मार्ग है।
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* जैन संप्रदाय : अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उनके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन धर्म को मानने वाले मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया, जिनके साधु सफेद वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना कपड़े के) ही रहते थे।
माना जाता है कि दोनों संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से ज्यादा चरित्र को लेकर है। दिगंबर आचरण पालन में अधिक कठोर हैं जबकि श्वेतांबर कुछ उदार हैं। श्वेतांबर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं जबकि दिगंबर मुनि निर्वस्त्र रहकर साधना करते हैं। यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है।
दिगंबरों की तीन शाखा हैं मंदिरमार्गी, मूर्तिपूजक और तेरापंथी और श्वेतांबरों की मंदिरमार्गी तथा स्थानकवासी दो शाखाएं हैं। कोई 300 साल पहले श्वेतांबरों में ही एक शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों को नहीं पूजते। जैन धर्म की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और भी उपशाखाएं हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।
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* जैन धर्मग्रंथ : भगवान महावीर ने जो उपदेश दिए थे उन्हें बाद में उनके गणधरों ने, प्रमुख शिष्यों ने संग्रह कर लिया। इस संग्रह का मूल साहित्य प्राकृत और विशेष रूप से मगधी में है। भगवान महावीर से पूर्व के जैन साहित्य को महावीर के शिष्य गौतम ने संकलित किया था जिसे 'पूर्व' माना जाता है। इस तरह चौदह पूर्वों का उल्लेख मिलता है।
जैन धर्म ग्रंथ के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है। समस्त आगम ग्रंथों को चार भागों मैं बांटा गया है:-1. प्रथमानुयोग 2. करनानुयोग 3. चरर्नानुयोग 4. द्रव्यानुयोग। इन सभी के उपग्रंथ हैं। फिर चार मुख्य पुराण आदिपुराण, हरिवंश पुराण, पद्मपुराण और उत्तरपुराण है। संपूर्ण ग्रंथों की जानकारी हेतु आगे क्लिक करें... जैन धर्म ग्रंथ और पुराण
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महावीर स्वामी : भगवान महावीर का जन्म 27 मार्च 598 ई.पू. को वैशाली गणतंत्र के कुंडलपुर के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ। उनकी माता त्रिशला लिच्छवि राजा चेटकी की पुत्र थीं। भगवान महावीर ने सिद्धार्थ-त्रिशला की तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल की तेरस को जन्म लिया।
महावीर स्वामी के कार्य : अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का निर्माण किया:- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विघ संघ कहलाया।
इसके लिए उन्होंने धर्म का मूल आधार अहिंसा को बनाया और उसी के विस्तार रूप पंच महाव्रतों (अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, अमैथुन और अपरिग्रह) व यमों का पालन करने के लिए मुनियों को उपदेश किया। गृहस्थों के भी उन्होंने स्थूलरूप-अणुव्रत रूप निर्मित किए। उन्होंने श्रद्धान मात्र से लेकर, कोपीनमात्र धारी होने तक के ग्यारह दर्जे नियत किए। दोषों और अपराधों के निवारणार्थ उन्होंने नियमित प्रतिक्रमण पर जोर दिया।
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महावीर स्वामी के सिद्धांत : अहिंसा, अनेकांतवाद, स्यादवाद, अपरिग्रह और आत्म स्वातंत्र्य। मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। अनेकांतवाद अर्थात वास्तववादी और सापेक्षतावादी बहुत्ववाद सिद्धांत और स्यादवाद अर्थात ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत। उक्त दोनों सिद्धांतों में सिमटा है भगवान महावीर का दर्शन।
महावीर के 34 भव (जन्म) : 1.पुरुरवा भील, 2.पहले स्वर्ग में देव, 3.भरत पुत्र मरीच, 4.पांचवें स्वर्ग में देव, 5.जटिल ब्राह्मण, 6.पहले स्वर्ग में देव, 7.पुष्यमित्र ब्राह्मण, 8.पहले स्वर्ग में देव, 9.अग्निसम ब्राह्मण, 10.तीसरे स्वर्ग में देव, 11.अग्निमित्र ब्राह्मण, 12.चौथे स्वर्ग में देव, 13.भारद्वाज ब्राह्मण, 14.चौथे स्वर्ग में देव, 15. मनुष्य (नरकनिगोदआदि भव), 16.स्थावर ब्राह्मण, 17.चौथे स्वर्ग में देव, 18.विश्वनंदी, 19.दसवें स्वर्ग में देव, 20.त्रिपृष्ठ नारायण, 21.सातवें नरक में, 22.सिंह, 23.पहले नरक में, 24.सिंह, 25.पहले स्वर्ग में, 26.कनकोज्जबल विद्याधर, 27.सातवें स्वर्ग में, 28.हरिषेण राजा, 29.दसवें स्वर्ग में, 30.चक्रवर्ती प्रियमित्र, 31.बारहवें स्वर्ग में, 32.राजा नंद, 33.सोलहवें स्वर्ग में, 34.तीर्थंकर महावीर।
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महावीर स्वामी के शिष्य : महावीर के हजारों शिष्य थे जिनमें राजा-महाराजा और अनेकानेक गणमान्य नागरिक थे। लेकिन कुछ प्रमुख शिष्य भी थे जो हमेशा उनके साथ रहते थे। इसके अलावा भी जिन्होंने नायकत्व संभाला उनमें भी प्रमुख रूप से तीन थे। महावीर के निर्वाण के पश्चात जैन संघ का नायकत्व क्रमश: उनके तीन शिष्यों ने संभाला- गौतम, सुधर्म और जम्बू। इनका काल क्रमश: 12, 12, व 38 वर्ष अर्थात कुल 62 वर्ष तक रहा। इसके बाद ही आचार्य परम्परा में भेद हो गया। श्वेतांबर और दिगंबर पृथक-पृथक परंपराएं हो गईं।
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महावीर स्वामी का निर्वाण : महावीर का निर्वाण काल विक्रम काल से 470 वर्ष पूर्व, शक काल से 605 वर्ष पूर्व और ईसवी काल से 527 वर्ष पूर्व 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण (अश्विन) अमावस्या को पावापुरी (बिहार) में हुआ था। निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।
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जैन धर्म की प्राचीनता और इतिहास का संक्षिप्त परिचय:-
दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है। वेदों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और व्रात्यों का उल्लेख मिलता है वे ब्राह्मण परम्परा के न होकर श्रमण परम्परा के ही थे। मनुस्मृति में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्यों में गिना है। श्रमणों की परम्परा वेदों को मानने वालों के साथ ही चली आ रही थी। भगवान पार्श्वनाथ तक यह परम्परा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई। पार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ सम्प्रदाय की शुरुआत हुई और इस परम्परा को एक संगठित रूप मिला। भगवान महावीर पार्श्वनाथ सम्प्रदाय से ही थे।
जैन धर्म का मूल भारत की प्राचीन परंपराओं में रहा है। आर्यों के काल में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा का वर्णन भी मिलता है। महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमिनाथ थे। जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। जैन धर्म ने कृष्ण को उनके त्रैसष्ठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह नारायणों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में कृष्ण जैनियों के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
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ईपू आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म भी हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। भगवान पार्श्वनाथ तक यह परंपरा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई। पार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ संप्रदाय की शुरुआत हुई और इस परंपरा को एक संगठित रूप मिला। भगवान महावीर पार्श्वनाथ संप्रदाय से ही थे।
ईस्वी पूर्व 599 में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का निर्माण किया:- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विघ संघ कहलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में देह त्याग किया।
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ईसा की पहली शताब्दी में कलिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा के प्रारंभिक काल में उत्तर भारत में मथुरा और दक्षिण भारत में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पांचवीं से बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन राजाओं के यहां अनेक जैन मुनियों, कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती थी। ग्याहरवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया।
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मुगल काल : मुगल शासन काल में हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिरों को आक्रमणकारी मुस्लिमों ने निशाना बनाकर लगभग 70 फीसदी मंदिरों का नामोनिशान मिटा दिया। दहशत के माहौल में धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे लेकिन फिर भी जैन धर्म को समाज के लोगों ने संगठित होकर बचाए रखा। जैन धर्म के लोगों का भारतीय संस्कृति, सभ्यता और समाज को विकसित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है।