जैन समाज का महाकुंभ पर्व है पर्युषण

भारत पर्वों और त्योहारों का देश है। उनमें न केवल भौतिक आकर्षण से पर्व है बल्कि आत्म  साधना और त्याग से जुड़े पर्व भी हैं। एक ऐसा ही अनूठा पर्व है पर्युषण महापर्व। यह मात्र  जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है, मानव मात्र का पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह  एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमें आत्मा की उपासना की जाती है। 
 

 
संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता  है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का  सद्प्रयास करता है। 
 
संपूर्ण जैन समाज का यह महाकुंभ पर्व है। यह जैन एकता का प्रतीक पर्व है। जैन लोग इसे  सर्वाधिक महत्व देते हैं। संपूर्ण जैन समाज इस पर्व के अवसर पर जागृत एवं साधनारत हो  जाता है। दिगंबर परंपरा में इसकी 'दशलक्षण पर्व' के रूप में पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक  दिन भाद्र व शुक्ल पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। 
 
दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्र व शुक्ल पंचमी का दिन समाधि का दिन होता है जिसे  संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से  मनाया जाता है। वर्षभर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो  जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
 
पर्युषण पर्व मनाने के लिए भिन्न-भिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं। आगम साहित्य में इसके  लिए उल्लेख मिलता है कि संवत्सरी चातुर्मास के 49 या 50 दिन व्यतीत होने पर व 69 या  70 दिन अवशिष्ट रहने पर मनाई जानी चाहिए। दिगंबर परंपरा में यह पर्व 10 लक्षणों के रूप  में मनाया जाता है। ये 10 लक्षण पर्युषण पर्व के समाप्त होने के साथ ही शुरू होते हैं।
 
पर्युषण महापर्व-कषाय शमन का पर्व है। यह पर्व 8 दिन तक मनाया जाता है जिसमें किसी के  भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो  उसको शांत करने का यह पर्व है। धर्म के 10 द्वार बताए हैं उसमें पहला द्वार है- क्षमा। क्षमा  यानी समता। क्षमा जीवन के लिए बहुत जरूरी है। जब तक जीवन में क्षमा नहीं, तब तक  व्यक्ति अध्यात्म के पथ पर नहीं बढ़ सकता।
 
यह पर्व अध्यात्म की यात्रा का विलक्षण उदाहरण है जिसमें यह दोहराया जाता है- 'संपिक्खए  अप्पगमप्पएणं' अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। यह उद्घोष, यह स्वर सामने आते ही  आत्मा के अतिरिक्त दूसरे को देखने की बात ही समाप्त हो जाती है। 'आत्मा के द्वारा आत्मा  को देखो'- यह उद्घोष इस बात का सूचक है कि आत्मा में बहुत सार है, उसे देखो और किसी  माध्यम से नहीं, केवल आत्मा के माध्यम से देखो। इस महान उद्देश्य के साथ केवल साधु-संत  ही नहीं बल्कि अनुयायी भी बड़ी तादाद में आत्म साधना में तत्पर होते हैं। 
 
भौतिकवादी परिवेश में अध्यात्म यात्रा के इस पथ पर जो नए-नए पथिक आगे बढ़ते हैं, उन्हें  इस पथ पर चलने में कठिनाई का अनुभव हो सकता है, कुछ बाधाएं भी सामने आ सकती हैं।  यह उलझन जैसी लगती है, पर कोई उलझन नहीं है। यह उलझन तब तक ही प्रतीत होती है,  जब तक कि अध्यात्म की यात्रा प्रारंभ नहीं होती। इस पथ पर जैसे-जैसे चरण आगे बढ़ते हैं,  उलझन सुलझती चली जाती है। समाधान होता जाता। जब हम अंतिम बिंदु पर पहुंचते तब वहां  समस्या ही नहीं रहती। सब स्पष्ट हो जाता है। एक अपूर्व परिवेश निर्मित हो जाता है और इस  पर्व को मनाने की सार्थकता सामने आ जाती है।
 
आज हर आदमी बाहर ही बाहर देखता है। जब किसी निमित्त से भीतर की यात्रा प्रारंभ होती है  और इस सच्चाई का एक कण, एक लव अनुभूति में आ जाता है कि सार सारा भीतर है, सुख  भीतर है, आनंद भीतर है, आनंद का सागर भीतर लहराता है, चैतन्य का विशाल समुद्र भीतर  उछल रहा है, शक्ति का अजस्र स्रोत भी भीतर है, अपार आनंद, अपार शक्ति, अपार सुख- ये  सब भीतर हैं, तब आत्मा अंतरात्मा बन जाती है। यही कारण है कि पर्युषण महापर्व स्वयं से  स्वयं के साक्षात्कार का अलौकिक अवसर है।
 
जैन धर्म की त्याग-प्रधान संस्कृति में पर्युषण पर्व का अपना और भी अपूर्व एवं विशिष्ट  आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का प्रेरक पर्व है इसीलिए यह पर्व ही नहीं,  महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। पर्युषण पर्व जप, तप, साधना,  आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का अवसर है।
 
पर्युषण पर्व अंतरआत्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व  है। सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है, जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता  है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। तो जरूरी है प्रमादरूपी नींद को  हटाकर इन 8 दिनों विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित  करते हुए अंतरआत्मा में लीन हो जाएं जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा।
 
पर्युषण पर्व का शाब्दिक अर्थ है- आत्मा में अवस्थित होना। पर्युषण शब्द परि उपसर्ग व वस्  धातु इसमें अन् प्रत्यय लगने से पर्युषण शब्द बनता है। पर्युषण यानी 'परिसमन्तात-समग्रतया  उषणं वसनं निवासं करणं'- पर्युषण का एक अर्थ है- कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का  नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अत: यह पर्युषण-पर्व आत्मा का आत्मा  में निवास करने की प्रेरणा देता है।
 
पर्युषण महापर्व आध्यात्मिक पर्व है। इसका जो केंद्रीय तत्व है, वह है आत्मा। आत्मा के  निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्युषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है।  अध्यात्म यानी आत्मा की सन्निकटता। यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को  संशोधित करने का पर्व है। यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है।
 
भगवान महावीर ने क्षमा यानी समता का जीवन जीया। वे चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो,  सभी परिस्थितियों में सम रहे। 
 
'क्षमा वीरो का भूषण है'- महान व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। पर्युषण पर्व आदान-प्रदान  का पर्व है। इस दिन सभी अपनी मन की उलझी हुईं ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की  राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं, वे एक-दूसरे से गले मिलते हैं, पूर्व में हुई भूलों को क्षमा के  द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं। पर्युषण महापर्व का समापन मैत्री दिवस के  रूप में आयोजित होता है, जिसे 'क्षमापना दिवस' भी कहा जाता है। इस तरह से पर्युषण महापर्व  एवं क्षमापना दिवस- ये एक-दूसरे को निकटता में लाने का पर्व है। यह एक-दूसरे को अपने ही  समान समझने का पर्व है। 
 
गीता में भी कहा गया है- 'आत्मौपम्येन सर्वत्र:, समे पश्यति योर्जुन'। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से  कहा- 'हे अर्जुन! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो।'
 
भगवान महावीर ने कहा- 'मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ' अर्थात सभी प्राणियों के  साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री,  शोषणविहीन सामाजिकता, अंतरराष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की  उपासना शैली का समर्थन आदि तत्व पर्युषण महापर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्व जन-जन के  जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से इस महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की  अपेक्षा है।
 
मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्मा-परमात्मा में विश्वास करे या नहीं, पूर्वजन्म और  पुनर्जन्म को माने या नहीं, अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहां तक संभव हो,  अहिंसा का सहारा ले- यही पयुर्षण की साधना का हार्द है। हिंसा से किसी भी समस्या का  स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हिंसा से समाधान चाहने वालों ने समस्या को अधिक उकसाया  है। इस तथ्य को सामने रखकर जैन समाज ही नहीं, आमजन भी अहिंसा की शक्ति के प्रति  आस्थावान बने और गहरी आस्था के साथ उसका प्रयोग भी करें।
 
नैतिकताविहीन धर्म, चरित्रविहीन उपासना और वर्तमान जीवन की शुद्धि बिना परलोक सुधार की  कल्पना एक प्रकार की विडंबना है। धार्मिक वही हो सकता है, जो नैतिक है। उपासना का  अधिकार उसी को मिलना चाहिए, जो चरित्रवान है। परलोक सुधारने की भूलभुलैया में प्रवेश  करने से पहले इस जीवन की शुद्धि पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। धर्म की दिशा में प्रस्थान  करने के लिए यही रास्ता निरापद है और यही पर्युषण महापर्व की सार्थकता का आधार है।
 
पर्युषण पर्व प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है।  वर्तमान की आंख से अतीत और भविष्य को देखते हुए कल क्या थे और कल क्या होना है,  इसका विवेकी निर्णय लेकर एक नए सफर की शुरुआत की जाती है। पर्युषण आत्मा में रमण  का पर्व है, आत्मशोधन व आत्मोत्थान का पर्व है। यह पर्व अहंकार और ममकार का विसर्जन  करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। 
 
आज पूरे विश्व को सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का  पर्व है। अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी  द्वेष, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए, बल्कि दुनिया के  लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई हैं और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं,  उन लोगों के लिए पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवनशैली  का प्रयोग है। 
 
आज भौतिकता की चकाचौंध में, भागती जिंदगी की अंधी दौड़ में इस पर्व की प्रासंगिकता बनाए  रखना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए जैन समाज संवेदनशील बने, विशेषत: युवा पीढ़ी पर्युषण पर्व  की मूल्यवत्ता से परिचित हो और वे सामायिक, मौन, जप, ध्यान, स्वाध्याय, आहार संयम,  इन्द्रिय निग्रह, जीवदया आदि के माध्यम से आत्मचेतना को जगाने वाले इन दुर्लभ क्षणों से  स्वयं लाभान्वित हो और जन-जन के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत करे।

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